श्री  आदिनाथ विधान    -  विज्ञानमति माता जी कृत







                       ॥ श्री आदिनाथ विधान ॥



                                   पीठिका


                                   (दोहा)


           तीर्थंकर आदीश के, विधान की जो श्रेष्ठ ।

         कहूँ पीठिका आज मैं,  पाने को फल ज्येष्ठ ॥1॥


                               (ज्ञानोदय )


      अलकापुर में नृप अतिबल का, पुत्र महाबल नामी था,

       स्वयंबुद्ध था मन्त्री जिससे, प्रेम रहा अतिभारी था।

 एक माह की आयु बची तब, समाधिपूर्वक मरण किया,

   सुख में दुख में हानि-लाभ में, समता का ही वरण किया ॥2 ॥



       फलतः दूजे सुर में जा ललितांग नाम का देव हुआ,

    इन्द्रिय सुख को भोगा फिर आ, धरती का भूदेव हुआ।

      बज्रबाहु का पुत्र रहा जो, बज्रजंघ मतिमान रहा,

रानी श्रीमति भाग्यवती जो, रूप गुणों की खान अहा ॥3 ॥



       इक दिन दोनों ने जंगल में, ऋद्धीश्वर मुनिराजों को,

   अशन दिया आहार कराकर, धन्य किया निज हाथों को।

      एक दिवस हा ! सोते-सोते, मृत्युराज ने वरण किया,

      दान दिया सो दोनों ने ही, भोगभूमि में जनम लिया ॥4॥



    अहो भाग्य से वहाँ सुदुर्लभ, साधु युगल को देख अहो,

   खिली चित्त की कलियाँ उनने, नमन किया सिर टेक अहो।
        फिर सुनकर उपदेश धर्म की, पहली सीढ़ी मानी जो,

        सम्यग्दर्शन पाया ओहो, ये ही, मोक्ष निशानी औ ॥5॥



        फिर दोनों मर स्वर्ग लोक में, देव हुए सुखधर्मी वे,

           प्रेम रहा था दोनों में वे, दोनों ही शुभकर्मी थे ।

 च्युत होकर के सुविधिनाम का, धरणीधर बन धरणी का,

  पालन-पोषण करके आश्रय, लिया धर्ममय तरणी का ॥ 6 ॥



       बने दिगम्बर वस्त्राभूषण तज करके शुभ वनवासी,

       करी तपस्या उग्र-उग्रतर, बन जाने को शिववासी ।

 मरण किया था समाधि फलतः, कल्प रहा जो अन्तिम है, 

  अच्युत में जा उपजे स्वामी, बना सुजीवन सत्तम रे ॥ 7 ॥



    फिर आकर नृप वज्रसेन जो, तीर्थंकर दुखहारक थे,

      पुत्र हुए श्री वज्रनाभि नृप, चक्रवर्ति भवहारक वे।

     पूज्य पिता से दीक्षा लेकर, षोडश भावन भायी थी,

   तीर्थंकर पद बाँध धन्य हो, उपशम श्रेणी पायी थी ॥ 8 ॥



      शुद्ध भाव से मृत्यु हुई, सर्वार्थसिद्धि में भव पाया,

     प्रवीचार का भाव नहीं सो, वीतराग सा सुख पाया।

      वर्षों वर्षों भोजन की नहिं इच्छा उनके होती थी, 

   संयम धारण करने को ही, आत्मा उनकी रोती थी ॥ 9 ॥



   आयु पूर्णकर नगर अयोध्या की माटी को धन्य किया,

   नाभिराय अरु मरुदेवी के, घर आँगन को रम्य किया। 

       दीक्षा लेकर केवल पाकर, समवशरण को पाया था,

  दिव्य-देशना से भव्यों को, मोक्षमार्ग बतलाया था ॥10 ॥



        अष्टापद कैलाशगिरी पर, ओहो ध्यानारूढ़ हुए,

    शेष सभी शुभ कर्मों को भी, नाश किया सुख पूर हुए।

         ऐसे श्री श्री आदिनाथ की पूजा लिखकर चाहूँ मैं,

तव आशिष से पूरी करके, अब तो भव नहिं पाऊँ मैं ॥11 ॥


                  ॥ परिपुष्पांजलिं क्षिपामि / क्षिपेत् ॥


                                         (1)

                                  


                              पूजन प्रारम्भ


                                  स्थापना


                                 (ज्ञानोदय)


       इस युग में जो धर्म ध्वजा को, फहराकर श्रीमान हुए,

       आदि जिनेश्वर तीर्थंकर बन, सर्वप्रथम भगवान हुए। 

         ऐसे मेरे पिता पितामह, त्रिभुवन भू के भूप रहे,

     आज बुलाकर पूजूं स्वामी, तुम ही शिवसुख कूप कहे ॥


                                   (दोहा)


             आओ-आओ हे प्रभो, करता मैं आह्वान ।

           सन्निधि थापन पूजना, सुख का है वरदान ॥


     ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।


     ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । 


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरण् ।


                                अष्टक


                      (लय- कहाँ गये चक्री....)


           पयस पूर्ण ये कलशा लेकर, तुम्हें चढ़ाता हूँ,

         जन्म मिटाने शिव पथ पर मैं, कदम बढ़ाता हूँ।

          आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ, 

           अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

  जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा...।


            चन्दन लेकर चरण चढ़ाकर, चर्चा मेदूँगा,

          चारों गति की पाप-ताप की, निज से भेदूँगा ।

            आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

             अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

     संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा... ।


          अक्षत की यह चम चम करती, थाली भर लाया,

           तुम्हें चढ़ाऊँ क्योंकि आपने, अक्षय पद पाया। 

            आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ, 

              अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


      ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

       अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा...।


               पुष्प चढ़ाकर तुमको फूला, नहीं समाया

             काम जीतने काम विजेता के पद आया हूँ।

            आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

             अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


       ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

       कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा... ।


              भूल कभी भी भूख आपके पास न आएगी,

             तब तो नैवज लेकर दुनिया, चरण चढ़ाएगी।

             आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ, 

              अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


      ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः 

       क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा...।


            ज्ञान प्रकाशक! रत्नदीप ये, पद में लाया हूँ,

             केवलज्ञान सुपाने पूजा, कर हरषाया हूँ।

           आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

             अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


   ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

   मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा... ।


           दस धर्मों की प्राप्ति हेतु ये, धूप दशांगी ले,

          पूजन करने आया मैं तो, चरण शिवांगी के।

         आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

          अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः 

 अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा...।


      दाख छुहारा किसमिस काजू, पिस्ता लाऊँ मैं,

    भेंट करूँ फल नाना विधि के, शिव को पाऊँ मैं।

       आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

        अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


   ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

  महामोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ... ।


         दीप धूप फल नैवज चन्दन, अक्षत पानी ले ।

       अर्घ बनाकर चरण चढ़ाऊँ, शिव वरदानी के ॥ 

        आदिनाथ श्री वृषभदेव तव, पूजा करता हूँ,

          अष्टम वसुधा पाने तेरे, पद में झुकता हूँ ॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः

   अनर्घ पद प्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा... ।


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                          प्रत्येक- अर्घ

                               (दोहा)

         पूजा जल फल आदि से, अब पूजूँ ले अर्घ ।

          तेरी पूजा से प्रभो!, मिट जावे उपसर्ग ॥


 इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्/क्षिपामि.....


                    जन्मातिशय के 10 अर्घ


                              (ज्ञानोदय)


       वृषभदेव तव देह यष्टि में, स्वेद कभी नहिं आता है,

    क्लान्ति रहित यह कान्तिमान तन, सबके मन को भाता है।

       जन्मे उसके पहले ही सुर, रत्नवृष्टि कर हरषाये,

      सम्यक् रत्नत्रय निधि पाने, अर्घ चढ़ाने हम आये ।1 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह निःस्वेदत्व जन्मातिशय गुणधारक

श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा... ।


      नवद्वारों से मल नहिं बहता, निर्मलता भरपूर रही,

    देह वृषभ की आँख नाक के, मल से भी अतिदूर कही।

   तन में भी जब मल नहिं है तो, अघमल इनके क्यों आवें,

    इसीलिए तो भक्त आपको, अर्घ चढ़ाकर सुख पावे ॥ 2 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निर्मलत्व जन्मातिशय गुणधारक 

श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा... ।


      हंस वर्ण का खून बना है, रक्त वर्ण को तजकरके,

     उसका कारण तीर्थंकर पद, बाँधा प्रभु को भजकरके।

      बनूँ अदेही इसी भाव से, आदिनाथ के गुण गाऊँ,

      अर्घ चढ़ाने पाद-पद्म में अष्ट-द्रव्य लेकर आऊँ ॥3 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षीरगौररुधिरत्व जन्मातिशय गुणधारक 

  श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा...।


      मनमोहक तव मनहारक तन, मनोज्ञता का मन्दिर है, 

       फिर भी मद नहिं सुन्दरता का, सो चेतन तव सुन्दर है। 

        वृषभदेव की बजा-बजाकर, ढोल नगाड़े शहनाई,

          पूजूँ तेरे जैसा बनने, बारी मेरी अब आई ॥4॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह सौरूप्य जन्मातिशय गुणधारक 

 श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा.... ।


        सौरभ मण्डित वपुषा तेरी, खुशबू की भण्डार रही,

        गुलाब पंकज और चमेली, उसके आगे हार गयी।

         ऐसी सौरभ वाला कोई, द्रव्य नहीं मिल पाया है,

       फिर भी चेला अर्घ हाथ में, लेकर पद में आया है ॥5॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं सौगन्ध्य जन्मातिशय गुणधारक 

श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा...।


       एक सहस वसु लक्षण वाला, तन भी सुन्दर लगता है,

       अहमिन्द्रों के चक्रवर्ति के, तन की शोभा हरता है।

       पिता- पितामह अहो आपकी,पूजन कर मैं हरषाया,

     सुना आपका हुआ पदार्पण, अर्घ उठाकर पद आया ॥16 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं सौलक्षण्य संहनन जन्मातिशय गुणधारक

  श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्धं निर्वपामीति स्वाहा... ।


       तीर्थंकर तुम प्रथम रहे संस्थान प्रथम ही तेरा है,

      इसीलिए तो सुन्दरता ने, आकर डाला डेरा है। 

     जन्मोत्सव करने को सुरगण, स्वर्गलोक से आये थे,

     मनुजलोक के मानव हम भी, अर्घ चढ़ाने लाये हैं । ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं समचतुरस्रसंस्थान जन्मातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा...।


      संहनन तन का सबसे उत्तम, तीर्थंकर ये उत्तम हैं,

      दर्शन करके एक बार में, भक्त बने हम सत्तम हैं।

      वृषभ चिह्न हैं वृष के ध्वज को, भारत भू पर फहराया,

      उस ही ध्वज की छाया पाने, आप शरण में मैं आया ॥ 8 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वज्रवृषभनाराच संहनन जन्मातिशय गुणधारक

श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा... ।


        वृषभनाथ प्रभु वचन आपके ऐसे मीठे लगते हैं,

     छप्पन व्यञ्जन के रस भी तो, उससे फीके पड़ते हैं।

      मिष्ठ वचन से, सबके मन को हर लेते,प्रियवादी तुम

       पूजा करके भक्त आपकी, पाप कर्म को दल देते ॥ १ ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं प्रियहितवादित्व जन्मातिशय गुणधारक

 श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा... ।


       अतुलनीय बल तेरे तन में, नहीं शक्ति का पार रहा,

        जहाँ वृषभ की पूजा होती, नहिं आती है हार वहाँ ।

       षट् कर्मों को सिखा प्रजा के, दुख दर्दों को मेट दिया,

       हमने भी आ प्रसन्नता से, अर्घ चरण में भेंट किया ॥10 ॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं अप्रमितवीर्य जन्मातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्धं निर्वपामीति स्वाहा...।


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           केवलज्ञानातिशय के 10 अर्घ

                          (दोहा)

     सौ-सौ योजन तक रहे, सुभिक्ष चारों ओर ।

     वृष से मेरी हे प्रभो! बंध जावे अब डोर ॥

     मनहर साँगानेर में, आदिनाथ भगवान ।

   आशा तज मैं पूजता, बनने को गतमान ॥11 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गव्यूतिशत चतुष्टय सुभिक्षत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


  गगन गमन को देखकर, अचरज का नहिं पार । 

    रहा हमारे सो प्रभो!, आये तेरे द्वार ॥

  पूज्य क्षेत्र बावनगजा, खड्गासन आदीश ।

  पूजे तो भव पार हो, नवा-नवाकर शीश ॥ 12 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गगनगमनत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक 

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।         

                                       

   नहीं मरे नहिं पा सके, पीड़ा कोई जीव ।

  तुमसे तो क्यों ना मिटे, भवसागर की पीर ॥

  क्षेत्र चाँदखेड़ी जहाँ, हीरे सम जिनराज ।

 अतिशयधारी वृषभ हैं, पहने शिव का ताज ॥ 13 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अप्राणिवधत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक 

     श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


    भोजन पानी खाद्य की, नहीं स्वाद्य की बात ।

    बची तभी तो वृषभ को मिला मुक्ति का साथ ॥

     गिरिवर गोलाकोट में, सुन्दर गोलमटोल ।

   बिम्ब रहा तीर्थेश का, नहिं हो सकता तोल ॥14 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भुक्त्यभाव घातिक्षयजातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


    बाधा नहिं उपसर्ग हो, तुम पर हे तीर्थेश ।

   अतिशय पाया पूजते, तुमको आ चक्रेश ॥

    सुर पूजित थूबौन में, आदीश्वर निष्काम ।

  फिर भी पूजक के बने, मनमाने सब काम ॥15 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह उपसर्गाभाव घातिक्षयजातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


    मुख दिखते चारों दिशि ,वृषभ आपके श्रेष्ठ ।

    समवशरण में इन्द्र सो,  आकर पूजें ज्येष्ठ ॥

     भीण्डर नगरी में रहे, मरुदेवी के लाल ।

     पूजा करके नित्य मैं जीतूंगा अब काल ॥16 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुर्मुखत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


       दासी बन आयी सभी, विद्याएँ तव पास।

     अर्चा कर वृषभ की, भक्त बने हम खास ॥ 

      कुण्डलपुर नाभेय के, चमत्कार की बात ।

      कह नहिं सकते देव भी, पूजूँ हे जगतात ! ॥17॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वविद्येश्वरत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


       छाया भी तव तेज से, छुपकर भागी दूर ।

      भवि आये इतने तदा, आया हो जलपूर ॥

      सागर नगरी में रहा, मन्दिर काकागंज ।

      श्रद्धा पूर्वक पूज ले, नहिं होवेगा रंज ॥ 8 ॥ 


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अच्छायत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


     हिलती डुलती ना कभी, तेरी पलके देव ।

     तब तो माने आपको, देवों के अधिदेव ॥

      एक शतक वसु हाथ का, बिम्ब आपका देव ।

       मांगीतुंगी में रहा, शक्री करते सेव ॥9॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अपक्षमस्पन्दत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक 

  श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


     नख केशों की वृद्धि यह, रुककर कहती आज।

      घाति कर्म के नाश से, वृषभ बने जिनराज ॥

      आबू अरु साकेत में, कीर्तिमान विख्यात ।

       आदिनाथ के बिम्ब को सुर पूजें दिनरात ॥20 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह समान नखकेशत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


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         देवकृत अतिशय के 14 अर्घ


                      (छन्द-नरेन्द्र)


    महा अठारह भाषा में अरु, सात शतक लघु भाषा,

    में खिरती है वाणी जिसको, लगा सौख्य की आशा । 

    सुनकर पापी जन भी ओहो, होते पानी-पानी, 

    मैं भी वाणी सुनकर तेरी,पाऊँ शिवरजधानी 1121 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वार्धमागधी भाषा देवोपनीतातिशय गुणधारक

 श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


    सबको सुख हो दुख मिट जावे, पूर्व भवों में भायी,

     श्रेष्ठ भावना उसके फल में, मैत्री दौड़ी आयी।

   अतिशयधारी आदिनाथ ही, जग में मोक्ष निशानी, 

    मैं भी मैत्री भावन भाकर, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 22 ॥


 ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजनमैत्रीभाव देवोपनीतातिशय गुणधारक 

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


   सर्दी में तो आम फले, अरु गर्मी में भी द्राक्षा,

   आदीश्वर जी जहाँ पधारे, फलती सारी आशा ।

   कर्म नाशकर अहो बने तुम, सबसे उत्तम दानी,

   पूजा करके स्वामी मैं भी, पाऊँ शिवरजधानी ||23||


 ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वर्तुफलादिशोभिततरु परिणाम देवोपनीतातिशय गुणधारक

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


    झगझग करती भू रत्नों सम, सबके मन को भाती,

    मानो तेरे समवशरण की, यशस्कीर्ति को गाती ।

    वृषभदेव तव दर्शन से मति, होती शान्त सुहानी,

    चर्चा अर्चा करके पद की, पाऊँ शिवरजधानी ॥24॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयी देवोपनीतातिशय गुणधारक 

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


    बिहार होगा जहाँ वहाँ अनुकूल चलेगी वायु,

    जो पूजेगा अकाल में फिर, नष्ट न होगी आयु।

     तेरे पद की भक्ति रचाने, आते राजा रानी, 

     समवशरण में भक्ति रचा मैं, पाऊँ शिवरजधानी ||25 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह विहरणमनुगतवायुत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक 

   श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


    आनन्दित हो नाच उठेंगे, तुम्हें देख मन केकी,

    क्योंकि मानकर हार मोह ने, अपनी रोटी सेंकी।

     मात-पिता को छोड़ा है सो, अहो बने तुम ज्ञानी,

    अर्चा करके मैं भी तो अब, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 26 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजनपरमानन्दत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक 

 श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


     वायु देव आ कण्टक कंकर, दूर करेंगे धूलि,

     आप भक्त के मोक्षमहल से, नहीं रहेगी दूरी ।

     सौ इन्द्रों का मण्डल आकर, करता तव अगवानी,

     मैं भी तेरी अगवानी कर पाऊँ शिवरजधानी ॥27॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वायुकुमारोपशमित धूलि कण्टकादि देवोपनीतातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


  छोटी-छोटी जल बूँदों को, करके खुशबू वाली,

   बरषाते हैं चारों दिशि में, मना-मना खुशहाली ।

   आदिनाथ तव भक्तों के घर, देव भरेंगे पानी,

    नाच-नाचकर पूजाकर मैं, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 28 ।।


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मेघकुमारकृत गन्धोदक वृष्टि देवोपनीतातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


    परम सुगन्धित स्वर्ण पद्म को, आप चरण के नीचे,

     रख करके वे देव भक्तिमय, मेघपुष्प' से सींचे ।

     समकित खेती सो उनके तुम, बन जाते वरदानी,

     वृषभ-वृषभ की माला जप मैं, पाऊँशिवरजधानी ||29||


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह पादन्यासे कृत पद्मानि देवोपनीतातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


      शालिधान के खेत फसल से, नम्रनीत हो जाते,

       वृषभ आपका मिले समागम, मद मत्सर मिट जाते।

        तेरे पथ की श्रद्धा से हो, पाप कर्म की हानि,

       पूजा करके आठ पहर मैं, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 30 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह फलभारनम्रशालि देवोपनीतातिशय गुणधारक

    श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


      शरद काल में जैसे नभतल, स्वच्छ सुनिर्मल होता,

      धूलि चढ़ा तव पद की सिर पर, बीज शान्ति के बोता ।

      आ जावेगी याद मोह को, भक्ति करे तो नानी,

      वृषभ भक्ति कर मैं भी जिनवर, पाऊँशिवरजधानी ॥31॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शरत्कालवन्निर्मल गगनत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक

     श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


      दुन्दुभि बाजे मधुर ध्वनि में, बजकर कहते आओ,

      वृषभदेव से वृष पाने को, आओ-आओ-आओ।

      सुनकर नयनों भर आया है, हर्ष भाव का पानी,

      ढोल बजाकर अर्घ चढ़ा मैं, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 32 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं एतैतैतिचतुर्निकायामर परस्परावानन देवोपनीतातिशय गुणधारक

     श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


      देख आपको दशों दिशाएँ, मल वर्जित हो जाती,

      और भव्य की सभी दशाएँ, दुख वर्जित हो भाती ।

       सब द्रव्यों की सही व्यवस्था, तुमने क्षण में जानी,

        रत्नत्रय को धारणकर मैं, पाऊँ शिवरजधानी || 33 ॥


 ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह शरन्मेघवन्निर्मल दिग्विभागत्व गुणधारक

     श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


        धर्म चक्र ये घाति चक्र के, मिटने से ही पाया, 

        भक्ति करे तो आदिनाथ का, बना रहेगा साया ।

        अघ को तजते सुख से भरते, सुनकर तेरी वाणी,

        सेवा करके मैं भी तेरी, पाऊँ शिवरजधानी ॥ 34 ॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह धर्मचक्र चतुष्टय देवोपनीतातिशय गुणधारक

      श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


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                   अष्ट प्रातिहार्य के 8 अर्घ


                     (लय-मुनि सकलव्रती ...)


    तरु शोक रहित हो जाता, वह प्रातिहार्य कहलाता।

    श्री वृषभ शोक के जेता, शिव पथ के आप प्रणेता ॥35॥


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अशोकवृक्ष प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य... 1


     सुर पुष्प वृष्टि से जग को, भर देते प्रभु के पथ को,

       जब समवशरण तव आता, जग हरा-भरा हो जाता ॥36॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


        ये रजतमयी हैं चामर, नहिं पा सकता है पामर ।

        प्रभु आदिनाथ ने पाए, हम सेवा करने आए ॥37॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं चतुषष्ठी चामर प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


        तव तन की निर्मल आभा, वह भामण्डल की शोभा । 

        नहिं कह सकता सुर स्वामी, मरुदेवी सुत जगनामी ॥ 38 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह भामण्डलप्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्रायनमःअर्घ्यं ...  I


         सुर खूब बजाते बाजे, श्री तीर्थंकर जब आते।

         हम बनकर तव अनुरागी, बन जायें झट गतरागी ॥ 39 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं दुन्दुभि प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्रायनमः अर्घ्य... 1


          ये छत्र शीश पर सोहे, जो कहते आनन्द होवे ।

          तू कर  ले प्रभु की सेवा, पा जावे शिव सुख मेवा ॥40॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह छत्रत्रय प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य... ।


           जब दिव्य देशना खिरती, सुन खोटी विधियाँ फिरती ।

            मैं आया दर पर तेरे, सो भाग्य खुले हैं मेरे ॥ 41 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं दिव्यध्वनि प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ।


            सिंहासन सबसे ऊँचा, जो कहता शासन सच्चा ।

            इन नाभिपुत्र का आओ, तुम पालन कर सुख पाओ ॥ 42 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सिंहासन प्रातिहार्य धारक श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                    पंच कल्याणक के 5 अर्घ


                    (लय - शान्तिनाथ मुख......) 


           आषाढ़ी की कृष्णा दूजी, गर्भ पधारे आदीश्वर जी ।

          छोड़ा था सर्वार्थसिद्धि को,पूजूँ मुझको मोक्ष सिद्धि हो ॥43 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गर्भकल्याणक मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


          चैत्र कृष्ण की नवमी आई, जन्म लिया था प्रभु ने भाई ।

           नगर अयोध्या तीर्थ कहाया, अर्घ चढ़ाऊँ मन हरषाया ॥44 ||


 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जन्म कल्याणक मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


              दीक्षा वन सिद्धार्थ रहा था, जन्म दिवस को खास कहा था।

              छह महिने का योग सुधारा, पूजक पावे शिव का द्वारा ॥45 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह तपः कल्याणक मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


              फाल्गुन कृष्णा ग्यारस प्यारी,चार घाति की तोड़ी क्यारी ।

               समवशरण में धर्म बताया, अर्घ चढ़ा मम मन मुस्काया ॥46 ॥


  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं ज्ञान कल्याणक मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... । 


              माघ कृष्ण की चौदस आयी, शिवांगना तब दौड़ी आयी । 

              अष्टापद पर विधि को नाशा,वन्दूँ पाऊँ निज का वासा ॥7 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निर्वाण कल्याणक मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं .. ।


                         अनन्त चतुष्टय के 4 अर्घ


          ज्ञान अमिट जब प्रगट हुआ था, ज्ञानावरणी निकल गया था । 

           मुनि चौरासी सहस पूजते, वृषभ भक्ति से पाप सूखते ॥48 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंत ज्ञान गुण मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


           अनन्त दर्शन जब विलसाया, कर्म दूसरा बच नहिं पाया।

            वृषभसेन थे पहले गणधर, पूजा करके पाऊँ शिवघर ॥49 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंत दर्शन गुण मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... । 


             सुख पाया जो पार कहाँ है, मिल पाएगा किसे यहाँ है।

             उसको पाया वृषभनाथ ने, अर्घ चढ़ाते चरणदास ये ॥50॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अनंत सुख गुण मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


              शक्ति वीर्य है तुममें जितना,कह नहिं पावे वह है कितना ।

              वृषभ धर्म के आप प्रणेता,अर्चं वन्दूं हे युग नेता ॥51॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अनंत वीर्य गुण मण्डित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


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                  18 दोष से रहित के 18 अर्घ


                      (लय-कहाँ गये चक्री )


   क्षुधा रोग का नाम निशाना, बच नहिं पाया है, 

   तब तो त्रिभुवनपतियों ने तव यश को गाया है।

    नहीं बुभुक्षा नहीं तितिक्षा, तृप्ति सु पायी है,

    वरमाला पहनाने शिव की,ललना आयी है ॥52॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षुधा दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


     प्यास न लगती कण्ठ तालु तव, सूख न सकते हैं,

      शक्री चक्री नारायण भी, तब तो झुकते हैं।

      भोगों की अब प्यास मिटे मम, आदिनाथ वन्दूँ,

      अर्घ चढ़ाकर मैं भी अब बन, जाऊँसुख सिन्धु ॥53॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं तृषा दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


       भय उसको लग सकता जिसके पास परिग्रह हो,

        परिग्रहों से मूर्च्छा तोड़ी, तो कैसे भय हो।

        भय मिट जावे निर्भय बनने, पूजूँ तुमको मैं,

        वृषभदेव प्रभु तेरे पथ पर, आस्था मुझको है ॥54॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भय दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


         नहीं द्वेष है किसी वस्तु से, शत्रु न कोई है,

          तब तो पुरुवर तुम्हें पूजने, जनता आई है।

         वृषभेश्वर के चरण कमल की, पूजा करते जो,

         शाश्वत पद को पाने शिवमय, वनिता वरते वो ॥55।।


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं द्वेष दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


           राग सुबढ़ता चेतन में जो, पर में रमता है,

            पर द्रव्यों से दूर हुए तुम, बची न ममता है।

            राग रोग सा उसे मिटाने, अर्घ चढ़ाता हूँ, 

          तीर्थेश्वर श्री आदिनाथ को, शीश झुकाता हूँ। 56 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह राग दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


           मोह शत्रु से पिण्ड छुड़ाकर, अखण्ड पद पाया,

            इसीलिए तो मोक्षमहल में, चेतन सरसाया।

            गुणनिधि हे गुणवन्त आपकी, पूजा कर हरषे,

             निर्धनता का डेरा उठता, लक्ष्मी नित बरषे ॥ 57 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मोह दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


              निज चिन्तन से चिन्ता तेरे, पास न आएगी,

             भक्त बना सो मेरी नैया, तट पर जाएगी। 

             आदिनाथ के चरण-कमल का, भ्रमर बना हूँ मैं,

              अष्ट द्रव्य ले भक्ति भाव से, पूज रचाऊँ मैं |58 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चिन्ता दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...। 


              देह न धारो कोई भी अब, वृद्ध न होओगे,

              शिव में जाओ सुख को पाओ, लौट न आओगे।

              अहो अजर हो अहो अमर हो, आदीश्वर स्वामी,

              अर्घ चढ़ाकर चाहूँ मैं भी, बनूँ मोक्षगामी ॥ 59 ॥


ॐ  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जरा दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...।


               जन्म-मरण के रोग लगे हैं, उनको नाश किया,

                फलतः पाकर अजर-अमर पद, शिव को पास किया।

                 अहो आप निःस्वार्थ वैद्य हैं, रोग मिटाने में, 

                 निशदिन तेरे दर पर आऊँ, पाप हटाने मैं |60|


ॐ  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रोग दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                             (लय - हे वीर महाअतिवीर....)

                 तुम मरण रहित वृषभेश, अन्तक दास बना,

                  मैं आकर पद धर्मेश, चेला खास बना।

                 हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                 हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ||61|


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं मरण दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


                 नहिं आता कभी पसेव, निर्मल तन पाया,

                 वह दोष मिटा सो देव, चरणों मैं आया।

                  हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                  हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ॥ 62 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं स्वेद दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं... ।


                  जो खतरनाक है दोष, वो ही खेद रहा, 

                  तुम मार बने गुणकोष, सो निरखेद अहा।

                  हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                  हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए |63 |


ॐ  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं खेद दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... । 


                   मदमातों के सब मान, क्षण में दूर हुए,

                   तव दर्शन से भगवान, सुख के पूर बहे।

                   हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                   हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ॥64 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मद दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... । 


                    रग-रग से रति को देव, तुमने अलग किया,

                   सो रति से त्रिभुवन पूज्य, निज को विलग किया,

                    हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                    हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए |65 |


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रति दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                    नहिं अचरज की है बात, विस्मय दोष मिटा,

                     जब पूजे तेरे पाद, मेरा हृदय खिला ।

                     हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                     हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए |66 |


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विस्मय दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                      क्यों निद्रा आवे द्वार, जागृत आप रहें,

                     सो पाया शिव का सार, महिमा कौन कहे।

                      हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                      हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ||67||


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निद्रा दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                     तुम कभी न लोगे जन्म,जन्मातीत हुए, 

                     तव अर्चा करके वन्द्य, हम भवभीत हुए।

                      हे वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                      हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ॥ 8 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह जन्म दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                     मैं बड़े शौक से आज, शोक विजेता के,

                     पद आया तजकर काज, मार्ग प्रणेता के ।

                     ये वृषभ सौख्य भण्डार, वृष से पूर्ण हुए,

                     हम आए तेरे द्वार, सो अघ चूर्ण हुए ॥ 69 ॥


ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शोक दोष रहित श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ... ।


                                        (घत्ता)


              हे आदिजिनेश्वर, तुम सर्वेश्वर, त्रिभुवन से अभिवन्द्य रहे,

             जो पूजे गावे, भक्ति बढ़ावे, नहीं पाप की गन्ध रहे ।

              तुम अष्टापद से, वसु आपद से, छूट गए सो धन्य हुए,

              हम दर आवेंगे, सुख पावेंगे, अर्घ चढ़ा हम रम्य हुए ॥70 ॥


       ॐ ह्रीं अष्टापद कैलाशगिरि सिद्ध क्षेत्रभ्योः नमः अर्घ्यं ... ।


                                      (ज्ञानोदय)


          आदिनाथ के बिम्ब मनोहर, मंजुल सरस सलौने हैं,

          उनकी पूजा करके हमको, बीज सौख्य के बोने है। 

         अतः बनाकर उत्तम उत्तम, सब द्रव्यों को आज मिला,

         पूजा करके अर्घ चढ़ाऊँ, हृदय कमल मम आज खिला ॥71 ॥


   ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं...। 


                                      (पूर्णार्घ)


         जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ, 

         दर्शन करके आह्लादित हो, तुम्हें चढ़ाने आया हूँ।

          पूजा यदि नहिं कर पाया तो, जीवन मेरा व्यर्थ रहा,

          इसीलिए हे वृषभदेव तव, पूजन से भव सार्थ हुआ || 72 ||


      ॐ  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः पूर्णार्घ... ।

      जाप्यः- ॐ  ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः


                                      9/27/108

                                    

                                         (7)


                                 जयमाला 


                                   (दोहा)


            जयमाला गतमान की, शीघ्र मिटाती मान । 

         सो गाकर के हे प्रभो! पाऊँ शाश्वत स्थान ॥1 ॥


                              (ज्ञानोदय)


       आदिनाथ तुम धरती पर सर्वार्थसिद्धि से आए थे,

         नगर अयोध्यावासी तेरे दर्शन कर हरषाए थे ।

   असि मसि आदिक षट्कर्मों का, प्रजाजनों को ज्ञान दिया,

  खाना-पीना सिखला उनको, सौख्य शान्ति का दान दिया ॥ 2 ॥


       करते- करते नृत्य मरी जब, सुरांगना तब देख प्रभो,

       विरत भाव से घर को तजकर, दीक्षा लेकर धन्य विभो ।

       चले गये थे कानन में फिर, छह महिने तक योग लिया,

       चर्या पर जब निकले भोजन, का नहिं महिनों योग मिला ॥3 ॥


       धैर्य धरा पर ध्यान लगाकर, क्षुधा परीषह जीत लिया,

      तन ममता तज समता धरकर, अन्तक को भयभीत किया।

       सहस वर्ष तक कठिन कठिन तप, करके जग को दिखा दिया,

       मोह कर्म यह कैसे क्षय हो, भव्य जनों को सिखा दिया ॥4॥


       देख तपस्या अहो मोह जब, बोरी बिस्तर ले करके,

        हुआ रवाना तब तो सुनलो, शेष घाति भी डर करके । 

        पीछे-पीछे भागे उसके, चारों ही वे बेचारे, 

       मृत्यु गोद में पहुँच गये तो, केवलनिधि आ तव द्वारे ॥ 5 ॥


        हुई समर्पित तब तो दर्शन, सुख वीरज भी आए थे,

         दर्शन करने तेरे तब तो, स्वर्गी भी ललचाए थे।

         तत्क्षण रचकर समवशरण के, बारह कोठे धन्य हुए,

         और देशना सुनकर तेरी रम्य हुए सब धन्य हुए ॥ 6 ॥ 


        वृषभसेन थे गणधर श्रोता, चक्रवर्ति था भरत महा,

         ब्राह्मी माँ थी प्रमुख अर्जिका और असंख्यों देव वहाँ ।

         आये उनने ज्ञान महोत्सव, करने बाजे बजवाए, 

        प्रातिहार्य का वैभव करके, मन ही मन में हरषाए ॥7 ॥


          मैं भी नाचूँ ढोल बजाऊँ, खुशियाँ खूब मनाऊँ मैं,

          पूजा करने का अवसर पा, शत-शत शीश नवाऊँ मैं ।

          झुनझुन झुनिया बजा-बजाकर घुंघरु बाँधू पैरों में,

          नृत्य करूँ मैं ऐसा अब तक, किया नहीं हो औरों ने ॥8 ॥


         झूम-झूमकर मुलक - मुलककर, ठुमक ठुमककर ठुमका दूँ,

         कटि मटकाकर हरष-हरषकर, महिमा तेरी बतला दूँ ।

          जिससे सब ही बिना बुलाए, तेरे दर पर आ जावे,

          भक्ति करे वे नाचे गावे, छोड़ तुम्हें फिर नहिं जावे ॥१॥


            क्योंकि आदि प्रभु तेरे जैसा, कोई सच्चा देव नहीं,

             और नहीं हितकारक जग में, और कहीं सर्वेश नहीं।

             भरत क्षेत्र में तुम ही सबसे पहले वृष भरतार हुए,

              दीक्षा लेकर स्वयं सिद्ध तुम, भव सागर से पार हुए ॥10 ॥


             रानी नन्दा और सुनन्दा, आप चरण में आयी थी,

            ब्राह्मी बिटिया और सुन्दरी, श्रमणी बन मन भायी थी।

            सभी पुत्र श्री चक्रवर्ति अरु, बाहुबली जो मदन रहे,

           समवशरण में मुनि बन करके, अचल सुशाश्वत सदन गये ।।11।।


           पुत्र आपका अनन्त प्यारा वीर्य जगत विख्यात हुआ, 

           बाहुबली का तेरे पहले, मुक्ति पुरी में वास हुआ।

           कुण्डलपुर अरु भीण्डर गोलाकोट अयोध्या नगरी में,

           सुनो चाँदखेड़ी अरु सांगानेर पुण्य की गगरी है । 2 ॥


          आदिनाथ के अतिशयकारी, मनमोहक जिन बिम्ब रहे, 

            उन सबकी मैं करूँ वन्दना, मेरे भी सब दम्भ हरे।

           प्रयाग प्रभु की तपोभूमि कैलाशगिरी शिवधाम रहा,

            जन्मस्थल तव नगर अयोध्या, सुख मिलता निर्दाम जहाँ ॥ 13 ॥


          पृथ्वीपति श्रेयांस सोम ने, सर्व प्रथम आहार दिया, 

           सेनापति जयसेन भव्य ने, गणधर पद को प्राप्त किया। 

           तेरे शासन में ही ओहो, अरबों खरबों ऋषियों ने,

          निज ध्याया था शिव पाया था, तेरे 'अनुचर शिष्यों ने ॥14 ॥


           कनक वर्ण की वपुषा तेरी, पाँच शतक धनु ऊँची थी,

            बतलाती थी आदिनाथ की, वाणी ही तो सच्ची थी।

           आठ-आठ ही रही सीढ़ियाँ, जिसके चारों ओर अहो,

            अष्टापद है वहीं आपने, पाया भव का छोर अहो ॥15 ॥


          यहीं भरत ने तीन काल की, चौबीसी के जिन मन्दिर, 

           बनवाए थे पूज्य बहत्तर, रत्न सुनिर्मित अति सुन्दर ।

           वृषभ चिह्न है वृष के तुम ही, अतुल अमिट भण्डार रहे,

           तब तो पूजा करके अब तक, भव्य पाप को टाल रहे ।।16 ॥


             ऐसे आदिम तीर्थंकर की, महिमा गाऊँ कैसे मैं,

             सहस किरणमय सूरज को ओ, कैसे दीप दिखाऊँ मैं ।

            सुर गुरुवर अरु सरस्वती भी, तेरे गुण नहिं गा पावे,

            हार मानकर वे बेचारे, मौन भाव को अपनावे ॥17॥


             मुझमें फिर कुछ ज्ञान नहीं है, नहीं शब्द की शक्ति रही,

             और नहीं है प्रज्ञा इतनी कर पाऊँ मैं भक्ति सही।

             किन्तु रही है अविचल श्रद्धा, तुझमें तेरी वाणी में,

             सो पूजा रच पद में अर्पण, किया आज सुखदानी के ॥18 ॥


               मन होता है दिवस-रात मैं, तेरे गुण का गान करूँ,

               खाना-पीना सोना तजकर, धर्मामृत का पान करूँ।

               किन्तु क्षुधा का रोग लगा मैं मोह भाव में फँसा हुआ, 

              सो पूरी कर जयमाला ये, मेरा मन अब मौन हुआ ॥19॥ 

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः जयमाला पूर्णा... ।


                                      आशीर्वाद


                                       (ज्ञानोदय)


             आदिनाथ की पूजा जो भी, भक्ति भाव से करते हैं,

            स्वर्ग सुखों को पाकर के वे, शाश्वत सुख को वरते हैं।


               इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । क्षिपामि.....


                                      प्रशस्ति 


                                       (दोहा)


               गुरसरांय में पार्श्व का मन्दिर पूज्य विशाल । 

               भविजन पूजा नित्यकर, चरण नमाते भाल ॥1 ॥


                 इस ही मंदिर में सुनो, पूजा की यह पूर्ण । 

              आदिम जिनवर की प्रभो, मेरे अघ हों चूर्ण ॥ 2 ॥


               वीर मोक्ष पच्चीस सौ तीन सहित चालीस ।

                गर्भ पधारे मात के, वासुपूज्य जगदीश ॥3 ॥


               छठवीं तिथि आषाढ़ की, कृष्ण पक्ष की आज ।

                उत्तम चौथे वार में, पूर्ण हुआ यह काज ॥ 4 ॥


               शान्ति वीर शिव ज्ञान की, परम्परा में आज । 

               विवेक सिन्धु की पाँचवी शिष्या का यह काज ॥5॥


                   पूर्ण हुआ है नमनकर, पार्श्वनाथ के पाद ।

                 विद्या गुरु आशीष से, नमूँ-नमूँ सौ बार ॥16 ॥


                 सूरज सरसिज सिन्धु हो, इस धरती पर सन्त ।

                 विधान पूजन सब करे, करें पाप का अन्त ॥7 ॥


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