अर्घावली
बीस तीर्थंकर
जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनिहू-तैं थुति पूरी न करी है।
द्यानत सेवक जानके (हो) जगतें लेहु निकार,
सीमन्धर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ।
(श्री जिनराज हो भव तारण तरण जहाज || )
ॐ ह्रीं श्रीसीमन्धरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्ध्य...
कृत्रिमाकृत्रिम जिनबिम्ब
कृत्याकृत्रिमचारुचैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान्,
वन्दे भावन-व्यन्तरान् द्युतिवरान् कल्पामरावासगान् ।।
सद्-गन्धाक्षत-पुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपैः फलै-
नराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा, दुष्कर्मणां शान्तये ॥
(सात करोड़ बहत्तर लाख, सु-भवन जिन पाताल में
मध्यलोक में चारसौ अट्ठावन, जजों अघमल टाल के ॥
अब लखचौरासी सहस सत्याणव, अधिक तेईस रु कहे।
बिन संख ज्योतिष व्यन्तरालय, सब जजों मन वच ठहे ॥)
ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमजिनबिम्बेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सिद्ध भगवान्
गन्धाढ्यं सुपयोमधुव्रत-गणैः, सङ्गं वरं चन्दनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत - चयं, रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं, श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं, सेनोत्तरं वाञ्छितम् ॥
ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति...|
समुच्चय चौबीसी भगवान्
जल फल आठों शुचिसार ताको अर्घ करों,
तुमको अरपो भवतार, भवतरि मोक्ष वरों ।
चौबीसों श्रीजिनचंद, आनँदकंद सही,
पद जजत हरत भव फंद, पावत मोक्ष मही ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तीस चौबीसी
द्रव्य आठों, जु लीना है, अर्घ कर में नवीना है,
पूजतां पाप छीना है, भानुमल जोड़ कीना है।
दीप अढ़ाई सरस राजैं, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजैं,
सातशत बीस जिनराजैं, पूजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पञ्चभरतपञ्चैरावतयोः भूतभविष्यद्वर्तमानसम्बन्धि
विंशत्यधिकसप्तशत- जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री आदिनाथ भगवान्
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय,
दीप धूप फल अर्घ लेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ।
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर बलि बलि जाऊँ मन वच काय,
हे करुणानिधि भव दुख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चन्द्रप्रभ भगवान्
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमों ।
पूजों अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमों ॥
श्री चन्द्रनाथ दुति चन्द, चरनन चंद लगै ।
मन-वच-तन जजत अमंद, आतमजोति जगै ॥
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री शीतलनाथ भगवान्
जल गन्ध अक्षत फूल चरु दीपक सुधूप कही महा ।
फल ल्याय सुन्दर अरघ कीन्हो दोष सो वर्जित कहा ॥
तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भव की ताप सौं ।
मैं जजौं युग पद जोरि करि मो काज सरसी आप सौं ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य भगवान्
जलफल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई,
शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरों यह लाई ।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज पद, वासव सेवत आई,
बालब्रह्मचारी लखि जिन को, शिवतिय सनमुख धाई ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री शान्तिनाथ भगवान्
वसु द्रव्य सँवारी,तुम ढिग धारी, आनन्दकारी दृग प्यारी ।
तुम हो भवतारी, करुणाधारी, यातै थारी शरनारी ॥
श्री शान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं ।
हनि अरि चक्रेशं हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री नेमिनाथ भगवान्
दाता मोच्छ के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता०
जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय ।
अष्टम छिति के राज करन को, जजों अंग वसु नाय ॥
दाता मोच्छ के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता०
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पार्श्वनाथ भगवान्
नीर गन्ध अक्षतान् पुष्प चारु लीजिये ।
दीप - धूप - श्रीफलादि अर्घ तें जजीजिये ॥
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष, भूलिये नहीं कदा ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री महावीर भगवान्
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरों ।
गुण गाऊँ भवदधि तार, पूजत पाप हरों ॥
श्री वीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो ।
जय वर्द्धमान गुणधीर सन्मतिदायक हो ।
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री बाहुबली स्वामी
हूँ शुद्ध निराकुल सिद्धों सम, भवलोक हमारा वासा ना ।
रिपु राग रु द्वेष लगे पीछे, यातें शिवपद को पाया ना ।।
निज के गुण निज में पाने को, प्रभु अर्घ संजोकर लाया हूँ ।
हे बाहुबली तुम चरणों में, सुख सन्मति पाने आया हूँ ।।
ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंच- बालयति
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ अरघ बनावत हैं ।
वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं ॥
श्री वासुपूज्य मल्लि नेम, पारस वीर अती ।
नमूँ मन-वचन्तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ॥
ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सोलहकारण
जलफल आठों दरब चढ़ाय द्यानत वरत करों मन लाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पददाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति ।
पंचमेरु
आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा को करो प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-अशीतिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
नन्दीश्वरद्वीप
यह अरघ कियो निजहेत, तुमको अरपतु हों ।
द्यानत कीज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥
नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पूज करों ।
वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनन्द भाव धरों
(नन्दीश्वरद्वीप महान चारों दिशि सोहें
बावन जिन मन्दिर जान सुर-नर-मन मोहें ।। )
ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तर-दक्षिणदिक्षु द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थ- जिनप्रतिमाभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दशलक्षण
आठों दरब संवार, द्यानत अधिक उछाह सों ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजों सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मागाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
रत्नत्रय
आठ दरब निरधार, उत्तम सो उत्तम लिये ।
जनम रोग निरवार सम्यक् रत्नत्रय भजूँ ॥
ॐ ह्री सम्यग्रत्नत्रय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्तर्षि
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना।
फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ।।
मन्वादि चारणऋद्धि धारक, मुनिन की पूजा करूँ
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ ॥
ॐ हूं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
निर्वाणक्षेत्र
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं ।
द्यानत करो निरभय जगत सों, जोर कर विनती करौं ।
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा पावापुर कैलाश कों ।
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास कों ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सरस्वती
जल चन्दन अक्षत फूल चरू, चत दीप धूप अति फल लावै ।
पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुख पावै।
तीर्थंकर की ध्वनि गणधर ने सुनी अंग रचे चुनि ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई ।
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री ऋषिमण्डल
जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्ध सुन्दर कर लिया ।
संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया ।।
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजें पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुख नहिं कदा ॥
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय ऋषिमण्डलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र
नीर चन्दन अखंड अक्षत पुष्प चरु अति सार ही ।
वर धूप निरमल फल विविध, बहु अर्ध सन्त उतार ही ॥
सो मेट दुर्गति होय सुरगति, सुख लहै शुद्ध भाव सों ।
सम्मेदगढ़ पर बीस जिनवर, पूजि भवि उच्छाह सों ॥
ॐ ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी
अष्ट द्रव्य के अर्घ्य बनाय, आत्मशांति हित चरण चढ़ाय ।
परम सुख होय, गुरु पद पूज परम सुख होय ॥
जय जय गुरुवर ज्ञान महान, ज्ञान रतन का करते दान ।
परम सुख होय, गुरु पद पूज परम सुख होय ॥
ॐ हूं आचार्यश्रीज्ञानसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
श्री विद्यासागर के चरणों में झुका रहा अपना माथा ।
जिनके जीवन की हर चर्या बन पड़ी स्वयं ही नवगाथा ।।
जैनागम का वह सुधा कलश जो बिखराते हैं गलीगली ।
जिनके दर्शन को पाकर के खिलती मुरझाई हृदय कली ॥
भावों की निर्मल सरिता में, अवगाहन करने आया हूँ ।
मेरा सारा दुख दर्द हरो, यह अर्घ भेटने लाया हूँ
हे तपो मूर्ति ! हे आराधक ! हे योगीश्वर ! हे महासन्त ! ।
है अरुण कामना देख सके, युग-युग तक आगामी बसन्त ॥
ॐ हूं आचार्यश्रीविद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मुनि श्री सुधासागर जी
हे सुधासागर दयालु मुझको जीवन दान दो ।
सर उठाकर चल सकूँ, ऐसा मुझे अभिमान दो ||
आ सकूँ तेरे निकट, ऐसा सरल सोपान दो ।
शीघ्र तर जाऊँ भवोदधि, यह मुझे वरदान दो ॥
नाम ही जपता रहूँ, जीवन तराने के लिये ।
भेंट में कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय नमः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महार्घ
मैं देव श्री अरहंत पूजूँ, सिद्ध पूजूँ चाव सों ।
आचार्य श्री उवझाय पूजूँ, साधु पूजूं भाव सों ॥
अर्हन्त भाषित बैन पूजूँ, द्वादशांग रची गनी ।
पूजूँ दिगम्बर गुरुचरण, शिवहेत सब आशा हनी ॥
सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि, दयामय पूजूँ सदा ।
जजि भावना षोडश रत्नत्रय, जा बिना शिव नहिं कदा ॥
त्रैलोक्य के कृत्रिम, अकृत्रिम, चैत्य चैत्यालय जजूँ ।
पनमेरु-नन्दीश्वर जिनालय, खचर सुरपूजित भजूँ ॥
कैलाशश्री सम्मेदश्री, गिरनारगिरि पूजूँ सदा ।
चम्पापुरी पावापुरी पुनि, और तीरथ सर्वदा ॥
चौबीस श्री जिनराज पूजूँ, बीस क्षेत्र विदेह के ।
नामावली इक सहसवसु जय होय पतिशिव गेह के ॥
दोहा
जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय ।
सर्व पूज्य पद पूज हूँ, बहु विधि भक्ति बढ़ाय ।।
ॐ ह्रीं भावपूजा भाववंदना त्रिकालपूजा त्रिकाल-वंदना करै करावै भावना भावै श्री अरिहन्तजी सिद्धजी आचार्यजी
उपाध्यायजी सर्वसाधुजी पञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः प्रथमानुयोग- करणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगेभ्यो नमः ।
दर्शनविशुद्धयादि- षोडशकारणेभ्यो नमः । जल के विषै, थल के विषै, आकाश के विषै, गुफा के विषै, पहाड़ के
विषै, नगरनगरी विषै, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, पाताललोक विषै विराजमान कृत्रिम अकृत्रिम 1 विदेहक्षेत्रे
विद्यमानबीस- जिनचैत्यालयजिनबिम्बेभ्यो नमः तीर्थङ्करेभ्यो नमः । पाँच भरत, पाँच ऐरावत दशक्षेत्र सम्बन्धी तीस
चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्यो नमः । नन्दीश्वरद्वीप-सम्बन्धी बावन जिनचैत्यालयेभ्यो नमः पञ्चमेरूसम्बन्धी
अस्सी जिनचैत्यालयेभ्यो नमः । सम्मेदशिखर, कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, सोनागिरि, राजगृही, शत्रुञ्जय,
तारङ्गा, मथुरा आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः । जैनबिद्री, मूडबिद्री, हस्तिनापुर, चन्देरी, पपोरा, अयोध्या, चमत्कारजी,
महावीरजी, पदमपुरीजी, तिजारा आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो नमः श्रीचारणऋद्धिधारि-सप्तपरमर्षिभ्यो नमः ।
ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपा-लसन्तं श्रीवृषभादि- महावीरपर्यन्तचतुर्विंशतितीर्थङ्करपरमदेवं आद्यानां आद्ये जम्बूद्वीपे
भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे ..नाम्नि नगरे.......मासानामुत्तमे ....... मासे शुभपक्षे ......... तिथौ ..वासरे
...........मुन्यार्यिकाणां श्रावकश्राविकाणां सकलकर्मक्षयार्थं अनर्घ्यपदप्राप्तये सम्पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
शांतिपाठ
(शांतिपाठ बोलते समय पुष्प क्षेपण करते रहना चाहिये)
चौपाई
शान्तिनाथ मुख शशि उनहारी, शील गुणव्रत संयमधारी ।
लखन एक सौ आठ विराजैं, निरखत नयन कमलदल लाजैं ॥
पञ्चम चक्रवर्ति पदधारी, सोलम तीर्थंकर सुखकारी ।
इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिन नायक, नमो शांतिहित शांति विधायक ॥
दिव्य विटप पहुपन की वरषा, दुन्दुभि आसन वाणी सरसा ।
छत्र चमर भामण्डल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ॥
शान्ति जिनेश शांति सुखदाई, जगत्पूज्य पूजौं शिर नाई ।
परम शांति दीजै हम सबको, पढ़ें तिन्हें पुनि चार सङ्घ को ॥
वसन्ततिलका
पूजै जिन्हें मुकुटहार किरीट लाके,
इन्द्रादि देव अरु पूज्य पदाब्ज जाके ।
सो शांतिनाथ वर वंश जगत्प्रदीप,
मेरे लिये करहिं शांति सदा अनूप ॥
(निम्न श्लोक को पढ़कर जल छोड़ना चाहिए)
संपूजकों को प्रतिपालकों को,
यतीनकों को यतिनायकों को
राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले,
कीजे सुखी हे जिन ! शान्ति को दे
होवै सारी प्रजा को, सुख बलयुत हो, धर्म-धारी नरेशा ।
होवै वर्षा समै पै, तिलभर न रहे, व्याधियों का अन्देशा ||
होवै चोरी न जारी, सुसमय वरतै, हो न दुष्काल मारी ।
सारे ही देश धारैं, जिनवर वृष को, जो सदा सौख्यकारी ॥
दोहा
घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज ।
शान्ति करो सब जगत में, वृषभादिक जिनराज ॥
शास्त्रों का हो, पठन सुखदा, लाभ सत्संगती का,
सद्वृत्तों का, सुजस कहके, दोष ढाकूँ सभी का ।
बोलूँ प्यारे, वचन हित के, आपका रूप ध्याऊँ,
तौलों सेऊँ, चरण जिनके, मोक्ष जो लों न पाऊँ ।
तव पद मेरे हिय में, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में ।
तब लौं लीन रहौं प्रभु, जब लौं पाया न मुक्ति पद मैंने ॥
अक्षर पद मात्रा से, दूषित जो कुछ कहा गया मुझसे ।
क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणा करि पुनि छुड़ाहु भव दुख से ॥
हे जगबन्धु जिनेश्वर, पाऊँ तव चरण-शरण बलिहारी ।
मरण समाधि सुदुर्लभ, कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी !!
पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि
(यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ना चाहिए )
विसर्जन
दोहा
बिन जाने वा जानके, रही टूट जो कोय ।
तुम प्रसाद तैं परमगुरु, सो सब पूरन होय ॥
पूजनविधि जानूँ नहीं, नहिं जानूँ आह्वान |
और विसर्जन हू नहीं, क्षमा करहु भगवान ।।
मन्त्रहीन धनहीन हूँ, क्रियाहीन जिनदेव ।
क्षमा करहु राखहु मुझे, देहु चरण की सेव ॥
आये जो जो देवगण, पूजे भक्ति प्रमान ।
ते अब जावहू कृपाकर, अपने-अपने थान |
(निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
श्री जिनवर की आशिका, लीजे शीश चढ़ाय ।
भव-भव के पातक करें, दुःख दूर हो जाय ।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये ।)
स्तुति पाठ
तुम तरणतारण भवनिवारण भविक मन आनन्दनो ।
श्रीनाभिनन्दन जगतवंदन आदिनाथ निरंजनो ॥१॥
तुम आदिनाथ अनादि सेऊँ सेय पदपूजा करूँ ।
कैलाशगिर पर रिषभ जिनवर पदकमल हिरदै धरूं ॥२॥
तुम अजितनाथ अजीत जीते अष्टकर्म महाबली ।
यह विरद सुनकर सरन आयो कृपा कीज्यो नाथजी ॥३॥
तुम चन्द्रवदन सु चन्द्रलच्छण चन्द्रपुरी परमेश्वरो ।
महासेननन्दन जगतवंदन चन्द्रनाथ जिनेश्वरो ॥४॥
तुम शान्ति पाँच कल्याण पूजूं सुद्ध मन वच काय जू ।
दुर्भिक्ष चौरी पापनाशन विघन जाय पलाय जू ॥५॥
तुम बालब्रह्म विवेकसागर भव्यकमल बिकाशनो ।
श्री नेमनाथ पवित्र दिनकर पापतिमिर विनाशनो || ६||
जिन तजी राजुल राजकन्या कामसेन्या वश करो ।
चारित्ररथ चढ़ भये दूलह जाय शिवरमणी वरी ॥७||
कंदर्प दर्प सु सर्पलच्छन कमठ शठ निर्मद कियो ।
अश्वसेननन्दन जगतवंदन सकल संघ मंगल कियो ||८||
जिन धरी बालकपणे दीक्षा कमठ मान विदारकैं ।
श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के पद मैं नमूं शिर धारकें ॥९॥
तुम कर्मघाता मोखदाता दीन जान दया करो ।
सिद्धार्थनन्दन जगतवंदन महावीर जिनेश्वरो ||१०||
छत्र तीन सोहै सुरनर मोहै वीनती अवधारिये ।
कर जोडि सेवक वीनवै प्रभु आवागमन निवारिये ॥११॥
अब होउ भव भव स्वामी मेरे मैं सदा सेवक रहों ।
कर जोड़ यो वरदान मांगूं मोक्षफल जावत लहों ॥१२॥
जो एक माँहीं एक राजत एक माँहीं अनेकनो ।
इक अनेक की नाहिं संख्या नमूं सिद्ध निरंजनो ॥१३॥
चौपाई
मैं तुम चरण कमल गुण गाय, बहुविधि भक्ति करी मन लाय ।
जनम जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि ॥१४॥
कृपा तिहारी ऐसी होय, जामन मरन मिटावो मोय ।
बार बार मैं विनती करूँ, तुम सेवा भवसागर तरूँ ||१५||
नाम लेत सब दुख मिट जाय, तुम दर्शन देख्या प्रभु आय ।
प्रभु देवन के देव, मैं तो करूँ चरण तव सेव ||१६||
(जिन पूजातें सब सुख होय, जिन पूजा सम अवरन कोय ।
जिन पूजातें स्वर्ग विमान, अनुक्रमतें पावें निर्वान |1)
मैं आयो पूजन के काज, मेरो जन्म सफल भयो आज ।
पूजा करके नवाऊँ शीस, मुझ अपराध क्षमहु जगदीस ||१७||
दोहा
सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी बान ।
मो गरीब की वीनती, सुन लीज्यो भगवान ||१८||
पूजन करते देव का, आद्य मध्य अवसान ।
स्वर्गन के सुख भोगकर, पावै मोक्ष निदान ||१९||
जैसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय ।
जो सूरज में ज्योति है, तारा गण नहिं सोय ॥२०॥
नाथ तिहारे नाम तैं, अघ छिन माँहिं पलाय ।
ज्यों दिनकर परकाश तैं, अंधकार विनशाय ॥२१॥
बहुत प्रशंसा क्या करूँ, मैं प्रभु बहुत अज्ञान ।
पूजाविधि जानूँ नहीं, सरन राखि भगवान ॥२२॥
इति भाषास्तुतिपाठ समाप्त
गुरुस्तुति
पाप पंथ परिहरो, मोक्ष पंथ पग धरो ।
अभिमान नहीं करो, निंदा को निवारी है ॥
छोड़यो है संसारी संग, ज्ञानी थाकी राख्यो रंग
सुमति को करो संग, बड़ो उपकारी है ॥
मुनि मन निर्मल, जैसो है गंगा को जल
काटत कर्म बंध,सप्त तत्त्वधारी है
संयम की करें जप, बारह विधि धरे तप
ऐसे मुनिराज ताको वंदना हमारी है
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