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श्री बड़ेबाबा विधान - रचयित्री आर्यिका विज्ञानमती जी

         श्री बड़ेबाबा विधान - रचयित्री आर्यिका विज्ञानमती जी

                     सम्पादिका आर्यिका आदित्यमती जी

      


             

                   श्री बड़ेबाबा विधान

                             स्तुति

                            (दोहा)

पूज्य बड़े बाबा तुम्हें, कोटि-कोटि परणाम।

थुति करता हूँ चाव से, मिट जावे भव नाम ॥

                         (पद्धरी) 

जय पूज्य बड़े बाबा महान, तुम दर्शन से हो पाप हान ।

सब दोष विनाशक धीर वीर, मम दोष विनाशो गुण गरीर ॥

मैं दरशन कर जो नन्द पाय, वो कह सकता ना शब्द माय ।

है गद-गद वाणी पुलक देह, है केवल तुममें मम सनेह ॥

मैं हरिहर आदिक देव देख, ना तुष्ट हुआ हूँ हे विशेख ।

सो आया सबको छोड़ आज, मैं वंदन करहूँ सिद्ध काज ॥

मैं हर्षित होकर नाच-नाच, मम इष्ट पूज्य हो आप साँच।

मैं ठुमक ठुमक कर दऊँ ताल, मैं चलना चाहूँ आप चाल ॥

मैं तननं-तननं तुरहि देय, मैं घननं-घननं घण्ट देय।

मैं ढम ढम ढम ढम-ढोल बजा, मैं पूजूँ मेटो जनम सजा ॥

तव दर्शन से हो अग्नि नीर, तव पर्शन से मिट जाय पीर ।

हो पापी के भी पाप नाश, पुनवान बढ़ेंगे मोक्ष पास ॥

मैं पर्वत चढ़कर निकटआय, सब मिटा परिश्रम आप पाय ।

तुम कर्म रहित हो वीतराग, है मेरा तुमसे परम राग ॥

दृग ज्ञान सुदर्शन सौख्य वीर्य, ना होते तुममें कभी शीर्य ।

त्रयलोकालोकं रहे जान, है उसका फिर भी नहीं मान ॥

सुर शक्री चक्री पड़े पाद, पा जाने समकित सत्य खाद ।

जो एक बार भी करे दर्श, ना होवे तन-मन कभी कर्श ॥

वो फिर-फिर आवे आप चरण, ना तजता क्षण भर आप शरण।

गुरु विद्यासागर सूरि देव, तव दर्श करन को आप गेह ॥

वे दरशन करके रीझ गये, वे पुनः-पुनः आ शीश नये ।

फिर मंदिर नूतन बनवाया, जब बाबा को था पधराया ॥

वह दृश्य देखने लायक था, हर बच्चा उसका भावक था ।

तब हर्ष अश्रु भी झलक रहे, ना दर्शक की वा पलक नये॥

यह मंदिर कितना है विशाल, यह संरक्षा की है मिशाल ।

औ दीक्षा दीनी नेक यहाँ, यह गुरू कृपा है आज यहाँ ॥

हम सबही उनके शिष्य रहे, हम भक्ति करे यह इष्ट अये ।

अब मन में मेरे नहीं आस, मैं केवल तुमरा रहूँ दास ॥

मैं बलि-बलि जाऊँ दिवस रात, मैं भव-भव पाऊँ आप साथ।

मम मोठे बाबा वर्ष-वर्ष, जयवंत रहे हो हर्ष - हर्ष ॥

गुरु छोटे बाबा कोटि वर्ष, इह दरशन देवे देय पर्श।

हम दरशन पा द्वय बाबा के, हम बचे कर्म के धावा से ॥

मैं नन्त-नन्तशः नमन करूँ, मैं शिव मारग पर गमन करूँ।

मैं तब तक पूजूँ आप पाद, ना होवे जब तक मुक्ति साथ ॥

                              (दोहा)

महिमा तुमरी हे प्रभो, कह सकता है कौन? ।

बृहस्पती भी हारकर, ले लेता है मौन ॥

       इति परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपामि !


                   स्थापना

                 (ज्ञानोदय)

मोठे बाबा बहुत बड़े है, बुंदेली में सबसे ही ।

बड़े कहे हैं कुण्डलपुर में, महिमाशाली सबमें जी ॥

श्रीधर स्वामी इसी क्षेत्र से, मोक्ष गये हैं भव छोड़ा।

सिद्धक्षेत्र का अतिशय भारी, हमने भी आ मन जोड़ा ॥

                    (दोहा)

पूज्य बड़े बाबा प्रभु, श्रीधर श्रेष्ठ महान्।

सन्निधि थापन उर बुला, अहनिशि पूजूँ आन ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति

 आह्वानम् ।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्

 सन्निधिकरणम् ।

                                             (घत्ता)

मैं स्वर्णिम झारी, में जल डारी, हे शिवकारी गुण गाऊँ।

मम जन्म मिटा दो, जरा बढ़ा दो, मृत्यु नशा दो पद आऊँ ॥

हे बाबा मंगल, मेटो दंगल, मिथ्या जंगल में उलझा ।

मैं महिमा सुनके, तुमको भजके, पूजा करके अब सुलझा ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः जन्मजरामृत्युविनाशनाय

 जलं निर्वपामीति स्वाहा। 

शुभ मलया चंदन, काटो बंधन, करके वंदन शरण गहूँ।

मैं शीतल बनने, आतप हरने, अर्चन करने चरण चहूँ ॥

हे बाबा...

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः संसारतापविनाशनाय

 चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।

 ये अमल अखण्डित, सौरभ मण्डित, करने खण्डित पाप तमम् ।

मैं अक्षत लायो, थाल भरायो, मन हरषायो मेट ममम्॥

हे बाबा............॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अक्षयपदप्राप्तये

 अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

हे काम विभंगे! रंग बिरंगे, सुरभित चंगे पुष्प लये।

बस ताप नाश दो, चरण वास हो, आप खास हो धर्म महे! ।।

हे बाबा मंगल, मेटो दंगल, मिथ्या जंगल में उलझा ।

मैं महिमा सुनके, तुमको भजके, पूजा करके अब सुलझा ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः कामबाणविध्वंशनाय

 पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

 ले नैवज मीठे, विधि मल रूठे, तुम हो नीठे त्रिभुवन में।

 मैं थाल भराऊँ, मंदिर आऊँ, क्षुधा नशाऊँ, चरणन में ॥

हे बाबा............... II

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः क्षुधारोगविनाशनाय

 नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

ये दीपक प्यारा, मणिमय न्यारा, आज उजारा देख तुम्हें ।

सब मोह नशाने, ज्ञान सुपाने, दीप चढ़ाने भाग्य जगे ॥ 

हे बाबा............।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः मोहान्धकारविनाशनाय

 दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 ये धूप दशांगी, सुरभित संगी, हे शिवरंगी लाया हूँ।

 मैं कर्म जलाने, तुम गुण पाने, धूप चढ़ाने आया हूँ ॥

 हे बाबा............॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अष्टकर्मदहनाय 

धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

हे गुण-गण धारी! लौंग सुपारी, पिस्ता प्यारी ले आऊँ ।

दो मोक्ष महाफल, मेटो दल-दल बनने अविचल नित ध्याऊँ ॥ 

हे बाबा............॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः मोक्षफलप्राप्तये

 फलं निर्वपामीति स्वाहा।

मैं द्रव्य सजाके, जल्दी आके, पूज रचाके हर्षित हूँ।

औ आप अमोलक, हे सुख गोलक, बजा सुढोलक अर्पित हूँ ॥

हे बाबा..........॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अनर्घपदप्राप्तयेऽर्घ्यं

 निर्वपामीति स्वाहा।


                     प्रत्येक- अर्घ

                         (दोहा)

अष्टक से मैं पूजकर, मुख्य गुणों को अर्घ ।

देता हूँ गुण सिन्धु को, मिटे कर्म उपसर्ग ॥ 

इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्/क्षिपामि ॥

                      (ज्ञानोदय )

स्वेद नहीं हो चेतन में वह, मल है तन का क्यों आवे? ।

स्वेदहीनता अतिशय प्रभु का, किसके मन को ना भावे ॥

मंगल ग्रह भी मंगल कर दे, बाबा को जो अर्पित हो ।

पूजन करके भक्ति भाव से, जीवन करे समर्पित औ ॥1 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः निःस्वेदत्व जन्मातिशय

 गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... । 

मल-मूत्रों के आँख नाक के, नव द्वारों के मल से भी ।

रहित रहा तन पूजा से मम सुधर गये हैं परभव भी ॥

बृहस्पती सी बुद्धि बढ़ेगी बाबा तेरे दर पर आ ।

श्रद्धा-पूर्वक अर्घ चढ़ावे, गुरुग्रह भी तो भागे वा ॥ 2 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः निर्मलत्व जन्मातिशय

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

दुग्ध समा है धवल रक्त जो, वत्सलता को बतलाता।

क्षेम-कुशल के काम देखकर, तीनलोक तव गुण गाता ॥

शुक्र ग्रहं क्या कर पायेगा, कुण्डलपुर के बाबा को ।

सुमरण करके जप करले तो, जग में उसका नामा हो ॥ 3 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हनमः क्षीरगौररुधिरत्व जन्मातिशय 

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

ऐसा सुन्दर रूप कहीं ना, सुरनर किन्नर खगधर में।

देखा हमने बाबा जैसा रूप कहाँ है जगभर में ॥

मोह राहु भी तव अर्चा से, भगे राहु क्या कर पाये? ।

तुमरे साथे बोल भव्य तू, क्यों ना प्रभु के गुण गाये? ॥ 4 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हनमः समचतुरस्रसंस्थान

 जन्मातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ... ।

वज्रों से भी बलशाली तुम, तन से सबका हित होता।

चूर दिये हैं आत्म शक्ति से, पूजक का भव मित होता ॥

क्रोध केतु भी तव चरणों की, आराधन से मिट जावे।

अहो केतु ग्रह कैसे बाबा, तुम भक्तों के टिक पावे ॥ 5 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः वज्रवृषभनाराच

संहनन जन्मातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं . .... I

सामुद्रिक शुभ लाञ्छन से ये, सुडौल सुन्दर अद्भुत औ ।

सौरूप्यं है अतिशय बाबा, वन्दक भी तो अद्भुत हो ॥

सूर्य ग्रहों से ग्रसित हुये भी सूरज सम वो चमक उठे।

आ जावे दरबार आपके, आनन्दित हो फुदक उठे ॥ 6 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सौरुप्य जन्मातिशय

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ....।

देह सुरभि से चम्प चमेली, पारिजात भी लज्जित हो । 

बाबा भज लें आप चरण तो, प्रज्ञ जनों में सज्जित हो ॥

मिथ्यातम का शनि लागा जो, नन्तकाल से प्राणी के ।

मिट जावे शनि रुके कहो क्या, शरण पाय सुखदानी जे ॥ 7 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सौगन्ध्य जन्मातिशय

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ....।

एक सहस वसु लक्षण शोभित, आप वदन यह प्यारा है। 

सहस भवों के पाप मेट कर, अर्चक लगता न्यारा है॥

भूत पिशाचं आकर बाबा, लीन होय सब भूल गये ।

सता सके क्या भूत कहो जो, तव चरणों की धूल गहे ॥ 8 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः सौलक्षण्य

 जन्मातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

उपमा कैसे अतुल शक्ति की, हो सकती है किससे जी।

भक्त पुजारी बाबा तेरा, आगे होता सबमें जी ॥

 जन्म- जरा के रोग मूल से, शरणागत के नाश करें।

कुष्ठ भगंदर आदि रोग क्या, रहे शीश जो पाद धरे ॥ 9 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हनमः अप्रमितवीर्य

 जन्मातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ... ।

मिष्ठ वचन को सुनकर लाडू, पेड़ा घेवर बावर भी ।

फीके लगते पूजक के तो नहीं बचेंगे पातक जी ॥

सोम सौम्यता धरता जो भी सौम्य बिम्ब को पूजेंगे।

सोम ग्रहों का काम बचा क्या दुर्दिन सह भव रूठेंगे ॥10 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हनमः प्रियहितवादित्व

 जन्मातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .....

                     (चौपाई )

चार शतक कोशों तक पूरी, दुर्भिक्षं से धरती दूरी ।

रहती अतिशय बाबा तेरा, पूजन में मन लागा मेरा ॥11 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः गव्यूतिशत चतुष्टय

सुभिक्षत्वघातिक्षय- जातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

पक्षी सम हो गगन बिहारी, बाबा तुमसे विधियाँ हारी ।

लोक- अन्त में जाय बसे हो, पाद-पद्म उर आन बसे औ ॥12 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्ह नमः गगनगमनत्व

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

कुछ कम कोटी पूर्व वर्ष तक, बिन खाये भी पुष्ट रहा तन ।

भगवन भोजन कभी न करते, दुखियों के कष्टों को हरते ॥13 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः भुक्त्यभाव 

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

गमनों से वा दिव्य वाच से, प्राणी वध ना होय आप से।

अहोऽप्राणिवध अतिशय किसमें, हो सकता बस भगवन तुममें ॥ 14 ॥

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अप्राणिवधत्व 

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

तीर्थंकर जो कर्म आपका, उपसर्गों से रहित आप वा ।

 अन-उपसर्ग अतिशय जैसा, अन्य कहाँ हो बाबा वैसा ॥ 15 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्ह नमः उपसर्गाभाव 

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ..... ।

सबको लगता प्रभु का आनन, मेरे आगे रहा आप तन ।

चारों दिशि में दिखते सबको, आनन्द भारी बाबा हमको ॥ 16 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः चतुर्मुखत्व 

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

सब विद्याएँ चेरी बनकर, रहती नित ही बाबा तुम पद।

विद्येश्वर की पूजा कर लूँ, फिर क्यों ना मैं भव को तर लूँ ॥ 17 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सर्वविद्येश्वरत्व 

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... I

अहा देह की छाया नाहीं, पड़ती भूपर तुमरी भाई ।

 अच्छायत्वं अतिशय कैसे, गावे हम हैं गूँगे जैसे ॥18 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अच्छायत्व

 घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

आँखों की पलकें ना झपके, इनसे तो बस समता झलके ।

देखन की सब इच्छा त्यागी, थकें नहीं हैं ये बड़भागी ॥ 19 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः अपक्ष्मस्पंदत्व

घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

नख केशों की वृद्धि रुकी है, इन्द्र मुकुट की मणी झुकी है।

परमौदारिक देह रही है, अतिशय है यह बात सही है ॥ 20 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः समान नख केशत्व

 घातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

                       (नरेन्द्र )

           (लय : शांतिनाथ के पद...........)

अर्धमागधी भाषा सुनकर, असंख्यात भवि प्राणी ।

एक साथ ही समझे बाबा, मिटे शंक दुख खानी ॥

तव दर्शन से निःशंकित हो, समकित भी पा जावे।

अज्ञानों का अंध मिटे तो, तम से क्यों भय खावे? ॥21॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सर्वार्धमागधी

भाषा देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं. .... 1

सिंह गाय औ साँप नेवला, जन्म विरोधी जीवा ।

बैर भूलते तुम्हें देखकर, मिट जाती सब पीड़ा ॥

सर्व जीव में बने मित्रता, अतिशय भगवन तेरा ।

कुण्डलपुर में दर्श करे जब, हर्षित हो मन मेरा ॥22॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सर्वजन मैत्री-भाव

 देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ....I

षट् ऋतुओं के फल-फूलों से, लद जाते इक साथे ।

वृक्ष-लताएँ झाड़-झाड़ियाँ, मुकुलित हो चहकाते ॥

तेरी अर्चा करनेवाले, पुत्र पौत्र यश पूजा |

पाते पल में धन-धान्यों को, उन सम ना हो दूजा ॥ 23 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः सर्वर्तुफलादि शोभित

तरु परिणाम देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

आप विचरते जहाँ-वहाँ की, धरती दर्पण भाँती ।

 निर्मल होती रत्न प्रपूरित, सब मन को हर्षाती ॥

 चमक उठेगा तीन लोक में, रत्नों सम तुम सेवी ।

 पापों का प्रक्षालन करके, बन जावे वृष - नेमी ॥24 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमःआदर्शतलप्रतिमारत्नमयी

देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

जिस दिशि में तुम विहरण करते, चले पवन अनुकूलं ।

मन्द मन्द ही नहीं किसी को, वायु रहे प्रतिकूलं ॥

बाबा तेरे चरण पड़े तो, पाप पंक धुल जावे।

मन्द मन्द ही कर्म उदय हो, कष्ट सभी भग जावे ॥25॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः विहरणमनुगतवायुत्व

देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

तुम्हें देखकर कलिया मन की, खिलती पुलकित देही।

 हो जाते हैं आनन्द पाते, चाहे हो निर्नेही ॥

 सुख में हो या दुख में होवे, गीत तुम्हारे गावे ।

 बाबा खुशियाँ जीवन भर हो, फूला नहीं समावे ॥26॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सर्वजनपरमानन्दत्व 

देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ..... I

वायु जाति के देव मार्ग के, काँटे कंकड़ धूली ।

दूर करे सो धरा स्वच्छ हो, जब आते शिव चूली ॥

संकट टलते पूजक के जब, अर्पित होकर पूजे ।

बाबा तुमको तजकर वे तो, और कहीं ना रीझे ॥ 27 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः वायुकुमारोपशमित

धूलि कंटकादि देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ... ।

मेघ जाति के देव गगन में, गर्जन करके आवें ।

हरष - हरष कर रिमझिम रिमझिम, गंधोदक बरसावें ॥

आधि-व्याधि से झुलस रहा हो, आप भक्तिमय पानी।

पी लेवे तो पल भर में ही, बनता शान्ति प्रधानी ॥28॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः मेघकुमार कृत 

गन्धोदकवृष्टि देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ...।

पाद रखेंगे आप जहाँ पर, देव कमल रच देवें । 

सहस पत्र के कनक विनिर्मित, सूर्य दीप्ति हर लेवें ॥

दो सौ पच्चिस पद्म देखकर, विस्मय सबको होवे ।

पादयुगल को एक साथ रख, गमन आपका होवे ॥29॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः पादन्यासेकृत पद्मानि 

देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

पकी फसल जब दर्शक का तन, रोमांचित कर देती ।

त्रिभुवनपति के वैभव को ही, निरख-निरख सुख लेती ॥

भाग्यवान जो भगवन तेरी, पूजा कर हरषावे ।

भूत-प्रेत की बाधाएँ भी, क्षण-भर में विनशावे ॥30॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः फलभारनम्रशालि

देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

बिजली बादल ओस कणों से, धूंधल से भी रीता ।

नभतल होता निर्मल जैसे, फटिक मणी हो शीता ॥

बाबा आकर आप चरण में, लोट-पोट हो जावे।

आपद के सब बादल छटकर, नींद चैन की पावे ॥ 31 ॥

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः शरत्कालवन्निर्मल

गगनत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

तुरही घंटा ढोल नगाड़ा, ढम ढम झन-झन बाजे ।

 साढ़े बारह कोटि वाद्य से, सुरकृत दुन्दुभि साजे ॥

बाबा तेरे पद पंकज की, धूली शीश चढ़ावे ।

कल्याणक हो उसका पंचम, तीन लोक पद आवे ॥32॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः एतैतैतिचतुर्निकायामर

परस्पराह्वान देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

दसों दिशाएँ शारद नभ सी, निर्मलता ले भाती ।

 भाव मलों से रहित नाथ के, अतिशय को बतलाती ॥

 पुण्यास्रव हो पूर्व पाप का नाश पाप ना आवे ।

 पूजे बाबा उसके घर में, खुशहाली छा जावे ॥33॥

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः शरन्मेघवन्निर्मल

दिग्विभागत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

सहस आर का झग झग करता, धर्म चक्र से पावन ।

उसे देखकर पापी का भी, जीवन होता सावन ॥

सौ-सौ उसके भाग्य जगेंगे, जो भगवन को ध्यावें ।

अपयश मिटकर यश फैलेगा, सहज-सौख्य को पावें ॥34॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः धर्मचक्रचतुष्टय

 देवोपनीतातिशय गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

सिंहासन पे राजते, फिर भी अधर विराज ।

विस्मित सबको कर दिया, समवशरण में राज ॥

कुण्डलगिरि पर आय के, बाबा की हम आज ।

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज ॥35॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः सिंहासन

प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

साढ़े बारह कोटि के, ढम ढम ढोल बजाय ।

तुमरा अतिशय देखकर, लायो अर्घ्य सजाय ॥ 

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज ॥36॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः दुन्दुभि 

प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ....

 हरित मणी के पत्र का, सघन छाँव का गाछ ।

उसके नीचे आपकी छवि अशोक निरबाध ॥

कुण्डलपुर................11 37 11

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

अशोकवृक्ष प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

चामर झुककर उठ रहे, कहते सुन ले भव्य ।

 झुक जा चरणों उच्च ही, गति हो होगा श्रव्य 

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज ॥38॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हं नमः चतुषष्टि

 चामर प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ....।

 कोटि सूर्य चन्दा सभी, फीके ही पड़ जाय ।

भामण्डल को देखकर, तेज सौम्यता पाय ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज .॥ 39 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः भामण्डल

प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

 तीन लोक त्रय छत्र का कहते हैं स्वामित्व ।

पूजन अर्चन  से रहे, सुख में ना खामित्व ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज . 11 40 11

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः छत्रत्रय प्रातिहार्य

धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ....।

 दूर-दूर तक आपकी, दिव्य वाच फैलाव ।

समाधान सब प्रश्न का, पा जावे भवि चाव ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज  Il 41 ||

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः दिव्यध्वनि

प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

नाना-विधि के पुष्प जो, डण्ठल नीचे राख ।

बरस कहे रे पूज ले, बन्धन होंगे राख ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज . 11 42 11

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः पुष्पवृष्टि

प्रातिहार्य धारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .....

नंत दर्श से हे प्रभू अवलोकन हो जाय ।

तीनलोक त्रयकाल सब, बिन श्रम के दिख जाय ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज 11 43 11

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अनंतदर्शन

गुण धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

नंत ज्ञान में सर्व ही, द्रव्यों की पर्याय ।

गुणों सहित झलके अहो, दर्पण सम तुम माय ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज 11 44 11

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अनंतज्ञान

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... ।

मोह कर्म के नाश से, अनंत सुख सम्पन्न ।

इन्द्रिय से ना उपजता, दूर हुआ परपंच ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज 11 45 II

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः अनंतसुख 

गुणधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

शक्ति रही अद्भुत प्रभू, और कहीं ना होय ।

 ना थकते नाराम की, आवश्यकता होय ॥

कुण्डलपुर में आय के, बाबा की हम आज । 

दृम-दृम वीणा नाद कर, पूज रचे शिरताज ॥ 46 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः अनंतवीर्य

गुण धारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

                        (सखी)

               (अति पुण्य उदय.....)

तव रत्नवृष्टि सुर करते, जब आप गरभ को धरते।

नव-मास आपकी सेवा कर सुरिया पाती मेवा ॥

छप्पन कुमारी सेव करती, मात की वसु याम है।

क्योंकी विराजे आप उसके, गरभ में शिव धाम है ॥ 

बाबा गरभ में आप आये, रत्नमयी यह भू धरा । 

ओहो हुई तब रत्नगर्भा, नाम इसने शुभ धरा ॥ 

मैं गर्भ उत्सव पूजकर, नहीं चाहता हूँ सम्पदा ।

मैं आप पद की शरण पाऊँ, क्यों मिले फिर आपदा ॥47 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हनमः स्वर्गावतरण 

गर्भकल्याणकधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ...।

 हे जन्म कल्याणक धारी, तव महिमा जग में न्यारी ।

 सुर करे मेरु अभिषेकं हम करते पूज विशेखं ॥

 हम पूज करते आपके अब, जन्म लड़ियाँ ना बची ।

 शचि देख मिथ्या मद तमों से, चंद क्षण में हाँ बची ॥

 बाबा तुम्हें जब सहस आठों, कलश से अभिषेचता।

सौधर्म सुर कर सहस नयना, दरश कर भव खेवता ॥

मैं धन्य हूँ प्रभु आपको पा, सर्व दुख से बच गया।

 औ मोहतम अज्ञान मेरा, दूर मुझसे हट गया ।48 ॥

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 जन्मकल्याणकधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ...|

 जब तप की भावन भाई, तब लौकान्तिक सुर आई।

 तव करे प्रशंसा भारी, यह संयम की बलिहारी ॥

 देखकर तव संयमों को, तप तपस्या योग को ।

 वादी - कुवादी मोह तजते, भोगि छोड़े भोग को ॥

 दीक्षा कल्याणक देख बाबा, साथ तुमरे नृपवरम् ।

 जाके बने थे वन-निवासी, पावने को सुखवरम् ॥ 

हे देव तुमने मौन धर, सम्मुग्ध सबको कर दिया। 

मैंने सुउत्तम अर्घ देकर,शीश पद में धर दिया |49 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 तपकल्याणकधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं .... । 

जब ध्यान अग्नि सुलगाई, तुम लीन हुए निज माहीं ।

तब चार- घातिया धाये, प्रभु केवलज्ञान उपाये ॥

तुम पाय करके ज्ञान केवल, समवशरण शोभित हुए।

भवि दिव्य-ध्वनि से देशना पा, आप पद मोहित हुए ।

बारह सभा में देव-देवी, मनुज नारी पशुगणम् ।

ऋषि श्रमण-श्रमणी बैठ पीते, धर्म अमृत दुखहरम् ॥

हम पूज करके, ताल देकर, छम छमा छम नाचते ।

ये अर्घ देने आपको, बाबा धमाधम आवते ॥50॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 ज्ञानकल्याणकधारक जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

जो घाति अघाति दुखदाई, वे पूर्ण मिटे जब भाई ।

तब शिव-पुर में जा राजे, हम पूजें हे सुखसाजे ! ॥

हम पूजते जो मोक्ष पद में, राजते अति विमल हैं।

हे नाथ! अर्चा करहिं पापी, जीव बनते अमल हैं।

हे श्रेष्ठ श्रीधर केवली ने, मुक्तिरमा को पा लिया।

इस भूमि को हो धन्य करके, सिद्ध पावन कर दिया ॥

बाबा सदा ही आपकी जो, ध्यावते गुणमाल हैं।

वे मुक्तिवधु के हाथ से वा, पहन ले वरमाल हैं। 51॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

मोक्षकल्याणकधारक जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ...|

              (विष्णुपद)

क्षुधा नागिनी डसती पल-पल, सो तुमने नाशी ।

भूख दोष जो चारों गति में, दे पीड़ा खासी ॥

उसको मूल मिटाया बाबा, पूजूं हे धीरं ।

क्षुत्-बाधा मिट जावे मेरी, अरजी है वीरं ॥ 52 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 क्षुधा दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं.......|

तृषा व्यथित हैं तीन लोक के, हाय सभी प्राणी ।

नेक भाँति के पेय पिये पर, तृप्ती ना जाणी ॥

प्यास अशेषं नाशी है सो, जो अर्चे बाबा । 

मिटे पिपासा धन वैभव की, पाता सुख खासा ॥53॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः तृषा दोष

 रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

 जर-जर होती देह सभी की, पुष्ट नहीं होवे ।

 फिर भी पौष्टिक खाकर हा-हा, भेद ज्ञान खोवे ॥

 जरा नशी है आयेगी ना, भूल कभी बाबा । 

चरणों शीश नमाते मिटता, कर्मों का धावा ॥ 54 ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 जरा दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

 आँख-नाक के पेट पीठ के, रोगों ने घेरा ।

औषध खाई पर ना बाबा, रोग मिटा मेरा ॥

आतंकों के पार गये तुम,वन्दूँ तुम चरणा । 

आधि-व्याधि में कष्टों में बस, तुम ही हो शरणा ॥ 55 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 रोग दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

देव नरों के, नारक तिर्यग, भव में जन्मा हूँ।

मानस तन के आकस्मिक भी, दुख को सहता हूँ ॥

जन्म श्रृंखला टूटी बाबा, अब ना जन्मोगे । 

भव्यों पूजो क्षणभर भी तो, नाहीं भटकोगे ॥ 56 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 जन्म दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

भाव मरण कर प्रतिपल मैंने, कर्मों को बाँधा ।

इसीलिए तो मर-मर पाई, कारागृह बाधा ॥

पण्डित-पण्डित मरण किया सो, सिद्धालय उपजे । 

बाबा भवदिय चरण जजे तो, ना आपद निपजे ।। 57 ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 मरण दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ....|

 लोकत्रय के भ्रमणों से हा, डरकर मैं आया। 

कोई ना है थान चित्त में, मुझको जो भाया ॥

 निर्भय बाबा पूजक तेरा, सातों भय नाशे ।

कुछ वर्षों में पा जायेगा शिव के सुखखाशे ॥ 58॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

भय दोष रहित जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ....।

छोटी-मोटी चीज देखकर, अचरज आया है।

क्योंकी मुझको अक्ष विषय ही, अबतक भाया है ॥

तीन लोक को तीन काल को, बिन बाधा जानो।

बाबा तुमको विस्मय ना हो, मेरे अघ हानो ॥ 59 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 विस्मय दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ....। 

नन्त पदारथ में से भी तो, कुछ नाहीं भावे ।

आप चरण को छोड़ जिनेश्वर, और कहाँ जावे ॥

बाबा रतिया शेष नहीं सो, सगरे आते हैं।

इसीलिए बस मुझको तो तुम, चरण सुहाते हैं। 60 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 रति दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .....

मनभावन में इष्ट वस्तु में, चेतन ललचाया।

किया राग सो उनको पाने, पापों लिपटाया ॥

राग रहित हो बाबा फिर भी, सब कुछ मिलता है। 

देख आपकी वीतरागता, आनन खिलता है ॥ 61 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 राग दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

बैर विरोधी झगड़ालू से, दूर सदा भगता ।

निकट बसे यदि आकर के तो, चित्त नहीं पगता ॥

द्वेष-भाव का नाम बचा ना, सो द्वेषी आते।

लखकर तेरी छवि को बाबा, मन वाँछित पाते ।162 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 द्वेष दोष रहित जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... । 

ये मेरा है, ये तेरा है, पक्षपात नाहीं ।

कर्त्तापन को छोड़ बने हो, निज आतम साँई ॥

सब द्रव्यों से मोह मिटाकर, बाबा राजत हो ।

किन्नर छम-छम नाच-नाचकर, महिमा गावत औ ॥163 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 मोह दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... I 

दर्शनावरणी मिटा तभी तो, निद्रा भागी है।

तव दर्शन की बाबा हममें, तृष्णा जागी है ॥

चक्री-शक्री खगधर, विद्याधर भी पूजे हैं।

सब देवों को तजकर हम तो, तुममें रीझे हैं ॥ 64 ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 निद्रा दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

दरश मोह ना चरित मोह ना, अंतराय भागा ।

निर अम्बर हो निर आभूषण, मन चेतन पागा ॥

गृह-गृहिणी को छोड़ चले तो, चिन्ता काहे की । 

तीन लोक में मात्र आपके, चरणा भावे जी ॥ 65 ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 चिन्ता दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं ....।

औदारिक यह उत्तम तन है, स्वेद कहाँ आवे ।

रहा पसीना देह मैल है, किसके मन भावे ॥

धन्य हुए हैं आज दर्श कर, बाबा चरणों के ।

तुमको लखकर पापी जन भी, रहते शरणों में ॥ 66 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

स्वेद दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... । 

कोई अच्छा बुरा करे तो, खेद नहीं करते।

कारण जग की सही व्यवस्था, ज्ञानों में धरते ॥

नहीं किसी से अपनापन है, ना अपना मानो ।

मिटे खेद जो भक्ति करेगा, ये निश्चित जानो ॥67 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

खेद दोष रहित जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्घ्यं ... ।

इष्ट वियोगं होता ना है, आप अकेले हैं।

शोक मिटा है शौक बढ़ा है, सो हम चेले हैं ॥ 

कुण्डलपुर के मोठे बाबा, शोक मिटाते हैं। 

हम तो तुमरे भक्त बने, अब अर्घ चढ़ाते हैं ॥ 68॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः 

शोक दोष रहित जिनेन्द्रेभ्यो ऽर्यं ... ।

क्या अच्छा क्या अच्छा ना है, आपेक्षित सारे।

आप जानते तभी आपके, नाहीं मद खारे ॥ 

आप मदों के नाशक बाबा, पूजा रचवाये। 

उसके मद की कारण विधियाँ, कैसे बच पावे ॥ 69 ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्ह नमः

 मद दोष रहित जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं .... ।

                             ( गीता )

                      (लय : नवदेवता.........)

दुख दातृ चारों घाति नाशे वन्द्य श्रीधर केवली ।

फिर चतुअघाती नाशने को, आय गुरुवर केवली ॥

इस क्षेत्र पर ही सिद्ध पद को, पा लिया औ आपने। 

हम अर्ध लेकर आपके पद, पूज करने आवते ॥ 70 ॥

ॐ ह्रीं सिद्ध पद प्राप्त श्री श्रीधर केवलिने नमः अर्घ्यं ....।

श्री आदि अजित श्रेयांस जिन श्री शांति पार्श्व अरनाथ के ।

 श्री चन्द्र सुविधि शीतल जिनेश्वर वीर नेमी नाम के ॥

 औ पूज्य मंदिर साठ अठ है क्षेत्र कुण्डलपुर जहाँ । 

मैं अर्घ देता सर्व को जिन, पूज से हो विधि कहाँ ॥ 71 ॥

ॐ ह्रीं कुण्डलगिरिस्थित सर्व जिनालयेभ्यो 

सर्व जिनबिम्बेभ्यो नमः अर्घ्यं ....।


                     पूर्णार्घ्य

                      (घत्ता)

ये सर्व जिनालय, सुख के आलय, बाबा के चहुँ ओर रहे।

सब वीतराग के, आत्म पाग के, दर्शक के मद तोड़ रहे ॥ 

ये शिखर बद्ध औ, फिर न बन्द हो, श्रद्धा से जो नमते हैं।

वसु अर्घ संजोके, वसु मद खोके प्रतिपल तुमको भजते हैं ॥ 72 ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अहं नमः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जयमंत्र : ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः ।

(108 बार करें)

                        जयमाला

जयमाला भव खेव की, कुण्डलगिरि के देव । 

गाऊँ बाबा आपकी, भक्त बना गुण सेव ॥

                       (ज्ञानोदय)

यह सिद्ध क्षेत्र है श्रीधर स्वामी, चार अघाती नाश किये। 

अष्टम वसुधा जाय विराजे, शिव ललना के पास जिये ॥

इस ही गिरि पर अतिशय वाला, एक बिम्ब है बाबा का ।

जिनके दर्शन सुमरण से ही, बन जाते सब काम अहा ॥ 1 ॥

सहस - सहस अयनों से बाबा, लाखों-लाखों लोग यहाँ ।

राजा श्रेष्ठी धार्मिक जन ने, पूज करी तिस पार कहाँ ॥

पुरातत्त्व से इतिहासों से, जाने जाते आप यहाँ । 

कैसे लाये कब लाये थे, कैसा मंदिर आज रहा ॥ 2 ॥

सपना आया इक व्यक्ती को, बैल रथों में जा करके।

ले जाओ ना भूल कभी तुम देखो पीछे मुड़ करके ॥

गाड़ी वाला प्रतिमा गाड़ी, में रख करके दृढ़ता से ।

चला पटेरा नगर दिशा में, बाबा के प्रति ममता से ॥ 3 ॥

आगे-आगे गाड़ी चलती, उसके पीछे बाजों की ।

संगीतों की ढोल मजीरे, पग के घुंघरु नाचों की ॥

ध्वनियों साथे महामहोत्सव, यहाँ किसी ने रचवाया।

देखे बिन ना उत्सव को वह, गाड़ी वाला रह पाया ॥ 4 ॥

जैसे ही वह पीछे मुड़कर लगा देखने बाजों को।

वहीं रुकी थी गाड़ी इक डग, आगे ना बढ़ पाये औ॥

बाबा तो बस यहीं रहेंगे, सोच यही सब भव्यों ने।

मंदिर बनवा विराजमान कर, दर्श किये थे श्रव्यों के ॥ 5 ॥

लोगों में यह वर्षों वर्षों से प्रचलित शुभ गाथा है ।

इसके ही बल श्रद्धा से सब, आय नमाते माथा है ॥

और सुनो इतिहास नाथ का, दूजा मैं बतलाता हूँ ।

मुनिवृन्दों से जुड़ा हुआ है, उनके गुण नित गाता हूँ॥ 6 ॥

कई दिनों जब सुरेन्द्र कीर्ति मुनि, जिनदर्शन ना कर पाये।

भोजन-पानी त्याग दिये थे, प्रभु भक्ती से अकुलाये ॥

बिहार करते संघ आपका, नगर हिण्डोरी जब आया ।

कहा सभी ने कुछ दूरी पर, इक पर्वत है गुरुराया ॥ 7 ॥

उस पर भूगत एक बिम्ब है, उनके दर्शन आप करें।

और दान का अवसर देकर, हमको भी कृतकाज करें ॥

सुनकर लोगों की ये बातें, सूरीश्वर जी जल्दी से ।

कुण्डलगिरि पर पहुँचे तब ही, सबने मिलकर फुरती से ॥ 8 ॥

बाबा का औ बिम्ब निकाला, दरश कराये गुरुवर को ॥

दरशन करके बाबा तेरे नाच उठे थे मुनिमन औ॥

उनके ही श्री नेमिदत्त जी, ब्रह्मचारी थे सज्ज्ञानी ।

सेवा पूजन करते प्रभु की, लोक मध्य थे सन्नामी ॥ 9 ॥

उनने नृपवर छत्रशाल को, दरशन करने स्वामी के ।

बुलवाया सो बाबा तेरी, भक्ति करी सुखदानी रे॥

उसके फल में गया राज्य भी, वापस उसने पा लीना ।

खुश होकर के सुन्दर मन्दिर, बनवाया था भवभीना ॥ 10 ॥ 

अब कहता मैं पापी जन की, कीने जिनने उपसर्गम् ।

दुष्फल पाकर शरण गही सो, तत्क्षण पाये सुखवर्गम् ॥

आकर के औरंगजेब ने, बाबा तुम्हें मिटाने की।

प्रतिमा खण्डित करने तेरी, महिमा पूर्ण हटाने की ॥ 11 ॥

लेय हथौड़ा पटका पग पर, दुग्ध धार आ निकल पड़ी।

देख अचम्भा हुआ सभी को, कल्पन नृप की विकल पड़ी ॥

बतलाती थी मानो प्रभु के तन में जनमों से ही हाँ ।

क्षीर समा ही श्वेत रक्त था, तीर्थंकर का अतिशय वा ॥ 12 ॥

एक बार तो इक पापी ने, विघ्न किया इह आकर के ।

मधुमक्खी के यूथों ने झट, उसे भगाया खाकर के ॥ 

आदि-आदि है चमत्कार जो, तेरे सबको दिखते हैं।

श्रद्धा से आचरण आपके, क्या-क्या ना पा सकते हैं ॥ 13 ॥

उनको लिखना कैसे संभव, वे तो गणनातीत रहे।

जो भी जितना माँगे मिलता चिन्तन से अघरीत भये ॥

देश-विदेशों सभी प्रदेशों, जैन अजैनी सब आते।

तुमरे दरशन करके उनको, फिर ना कोई मन भाते ॥ 14 ॥ 

और कहूँ क्या विद्यासागर, गणनायक गुरु आये थे।

पच्चिस सौ बत्तीस वीर के, मोक्ष समय गुण गाये थे॥

जूने मंदिर में से बाबा, तुमको जब ले जाना था ।

नूतन मंदिर में तब माँसाहारी मानव आया था ॥ 15 ॥

बाबा किंचित हिले नहीं तो, चिंता गुरु को उपजी रे।

नहीं खिसकते भगवन् सो क्या, नहीं हमारी भक्ती है ॥

उसको बुलवा पूछा क्या तुम, खोटा-भोजन करते हो । 

उसने उठकर जल्दी से गुरु, चरणों में सिर धरके औ॥ 16 ॥

त्याग किया फिर जाकर तुमको, उठा लिया ज्यों फूल रहें।

वा-वा-वा-वा जय-जय-जय-जय, करते सब ही झूल उठें ॥

जैसे ही जब सिंहासन पर, आप तिष्ठ कर राजे थे।

गुरुवर का तो अद्भुत अनुभव, आनन पर ही लागे रे ॥ 17 ॥

गुरु आशिष का फल था यह सब, दुनिया ने वा देख लिया।

धन्य हुआ मम रम्य हुआ मम, बाबा तुमको देख जिया ॥

आदिनाथ या नेमिनाथ या, महावीर है अतिवीरा ।

वन्द्य बड़े बाबा हैं हमरे, पूज्य अर्च्य गुण गम्भीरा ॥ 18॥

बाबा हैं ये मोठे बाबा पूज्य बड़े बाबा जी हैं।

हम तो पूजे चौबिस घण्टे, इसमें ही मन राजी हैं ॥

पृथ्वी कागज अर्णव जल को स्याही कर लूँ जिनवर के| 

सब वृक्षों की कलम बनाकर लिखता जाऊँ मनभर के ॥ 19 ॥

गुण गाऊँ मैं कैसे बाबा, नन्त-गुणों के आगर हैं।

जीवन पूरा होगा गुण ना, छोटेंगे सुखसागर के ॥

अल्पबुद्धि से बिन्दु समा ये, गुण गाये बस मैंने हैं।

भक्ति भार में मूक बना हूँ, शोध पढ़े जे पैने हैं ॥ 20 ॥

पूर्ण करूँ अब मौन धरूँ मैं, लज्जा अनुभव करता हूँ।

हे स्वामी मैं क्षमा माँगकर, चरणों में सिर धरता हूँ ॥

कर्म नाश हो दुःख नाश हो, बोधि समाधि प्राप्त करूँ ।

यही प्रार्थना करता मैं तो, तुम सम प्रभुवर आप्त बनूँ॥ 21 ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः

 जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

                       आशीर्वादः

कुण्डलगिरि का श्रीधर स्वामी, पूज्य बड़े बाबा का जो ।

 विधान करता भाव भक्ति से द्वय भव दुखड़ा मिटता औ॥

 सुरनर किन्नर विद्याधर के, सौख्य सहज ही मिलते हैं।

 परम्परा से मोक्षमहल के, सुख भी उसको फलते हैं ॥

           परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् / क्षिपामि ।


                         प्रशस्ति

शांति सिंधु से विद्या गुरु तक, सूरीश्वर की प्रतिभा है।

विवेकसागर दीक्षा दाता, तप संयम की प्रतिमा थे।

कूकनवाली में धारा है, श्रमणी पद को जिसने वा ।

पूज्य बड़े बाबा का प्यारा, रचा विधानं उसने हाँ ॥(1)

मुंगावलि में संघ नायिका, रही आर्जिका दृढ़मति जी ।

व्यूह बड़ा है सत्ताइस का, उनसे मिलकर आये जी ॥

मालथौन में पार्श्वनाथ के दर्शन करके आय यहाँ ।

पूर्ण हुआ है कोटि वर्ष तक, बनी रहे यह पूज महा ॥ (2)

चैत्र शुक्ल की पूनम के दिन, सूर्यवार शुभ प्यारा है। 

वीर मोक्ष चौंतीस वर्ष है, जैनधर्म सुखकारा है॥

पाँच बीस सौ संवत में ही, कुण्डलपुर के गिरिवर पे । 

विराजमान श्री बाबा का यह, विधि विधान अति मनहर है ॥ (3)

पानी पृथ्वी पावक पवनं, जब तक धरती धारे जी । 

तब तक पूजा भक्ति रचाके, भव्य पाप को वारे जी ॥

जयवन्ते यह पूज नाथ की, युगों-युगों तक दरशन हो ।

बाबा के हम रहे पुजारी, जब लो शिव ना परसन हो ॥


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