दर्शनपच्चीसी
तुम निरखत मोंको मिली, मेरी सम्पति आज ।
कहाँ चक्रवति-संपदा कहाँ स्वर्ग-साम्राज || १||
तुम वन्दत जिनदेव जी, नित नव मंगल होय ।
विघ्न कोटि ततछिन टरैं, लहहि सुजस सब लोय ||२||
तुम जाने बिन नाथ जी, एक स्वास के माँहि ।
जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहि ||३||
आप बिना पूजत लहे, दुःख नरक के बीच |
भूख प्यास पशुगति सही, कर्यो निरादर नीच ॥४॥
नाम उचारत सुख लहै, दर्शनसों अघ जाय ।
पूजत पावै देव पद, ऐसे हैं जिनराय ॥५॥
वंदत हूँ जिनराज मैं, धर उर समताभाव ।
तन-धन-जन जगजाल तैं धर विरागता भाव ॥६॥
सुनो अरज हे नाथ जी, त्रिभुवन के आधार ।
दुष्ट कर्म का नाश कर, वेगि करो उद्धार ||७||
जाचत हूँ मैं आपसों, मेरे जियके माँहि ।
रागद्वेष की कल्पना, कबहूँ उपजै नाहि ॥८॥
अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागता माँहि ।
विमुख होहि ते दुख लहैं, सन्मुख सुखी लखाहि ||९||
कलमल कोटिक नहि रहैं, निरखत ही जिनदेव ।
ज्यों रवि ऊगत जगत् में, हरै तिमिर स्वयमेव ॥१०॥
परमाणू पुद्गलतणी, परमातम संजोग ।
भई पूज्य सब लोक में, हरे जन्म का रोग ।।११।।
कोटि जन्म में कर्म जो, बाँधे हुते अनन्त ।
ते तुम छवी विलोकते, छिन में हो हैं अन्त ॥ १२॥
आन नृपति किरपा करै, तब कछु दे धन धान ।
तुम प्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप समान ||१३||
यंत्र मंत्र मणि औषधी, विषहर राखत प्रान ।
त्यों जिनछवि सब भ्रम हरै, करै सर्व परधान ||१४||
त्रिभुवनपति हो ताहि तैं, छत्र विराजैं तीन ।
सुरपति नाग नरेशपद, रहैं चरन आधीन ||१५||
भवि निरखत भव आपने, तुव भामण्डल बीच ।
भ्रम मेटैं समता है, नाहिं सहै गति नीच ॥१६॥
दोई ओर ढोरत अमर, चौंसठ चमर सफेद ।
निरखत भविजन का हरैं, भव अनेक का खेद ॥१७॥
तरु अशोक तुव हरत है, भवि-जीवन का शोक ।
आकुलता कुल मेटि कें, करैं निराकुल लोक ॥१८॥
अन्तर बाहिर परिगहन, त्यागा सकल समाज ।
सिंहासन पर रहत हैं, अन्तरीक्ष जिनराज ॥१९॥
जीत भई रिपु मोहतैं, यश सूचत है तास ।
देव दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजैं अकाश ॥२०॥
बिन अक्षर इच्छा रहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय ।
सुर नर पशु समझैं सबै, संशय रहै न कोय ॥२१॥
बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर ।
फैलत सुजस सुवासना, हरषत भवि सब ठौर ॥२२॥
समुद्र बाध अरु रोग अहि, अर्गल बंध संग्राम ।
विघ्न विषम सबही टरैं, सुमरत ही जिननाम ॥ २३॥
सिरीपाल, चंडाल पुनि, अञ्जन भीलकुमार ।
हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार ॥२४॥
बुधजन यह विनती करै, हाथ जोड़ शिर नाय ।
जबलौं शिव नहिं होय तुव-भक्ति हृदय अधिकाय ॥२५॥
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