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दर्शन - स्तुति - प्रभु पतित-पावन मैं अपावन

                दर्शन - स्तुति

                कविवर बुधजन

प्रभु पतित-पावन मैं अपावन, चरन आयो सरन जी

यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरन जी ॥

तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी ।

या बुद्धि सेती निज न जाण्यो, भ्रम गिण्यो हितकार जी

भव-विकट-वन में करम बैरी, ज्ञान-धन मेरो हर्यो ।

तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट-गति धरतो फिर्यो ।

धन घड़ी यो धन दिवस, यो ही धन जनम मेरो भयो ।

अब भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो

छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं ।

वसु प्रातिहार्य अनन्त गुणजुत, कोटि रवि-छवि को हरें॥

मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो ।

मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिन्तामणि लयो ||३||

मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुव चरन जी ।

सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक-पति जिन, सुनहु तारन तरन जी ॥

जाचूँ नहीं सुर-वास पुनि, नर-राज परिजन साथ जी ।

'बुध' जाचहूं तुव भक्ति भव-भव, दीजिए शिवनाथ जी

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