दर्शन-स्तुति

                 कविवर दौलतराम 

                         दोहा

सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन ।

सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन ॥

                        पद्धरि

जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह- तिमिर को हरन सूर ।

जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार ॥१

जय परम शान्त मुद्रा समेत, भवि-जन को निज अनुभूति हेत ।

भवि-भागन वच-जोगे वशाय, तुम धुनि ह्वै सुनि विभ्रम नशाय ॥

तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक, प्रगटै, विघटैं आपद अनेक ।

तुम जगभूषण दूषणवियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥३॥

अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप ।

शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परिणतिमय अछीन 

अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्व-चतुष्टयमय राजत गभीर ।

मुनि गणधरादि सेवत महन्त, नव-केवल-लब्धि-रमा धरन्त ॥५॥

तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव ।

भव-सागर में दुख छार वारि, तारन को अवर न आप टारि ॥६॥

यह लखि निज दुख-गदहरण-काज,तुम ही निमित्त कारण इलाज ।

जाने, तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥७॥

मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधिफल-  पुण्यपाप ।

निज को पर को करता पिछान, पर में अनिष्टता-इष्ट ठान ॥८॥ 

आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृग-तृष्णा जानि वारि । 

तन-परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्व-पदसार ||९

तुम को बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । 

पशु-नारक-नर-सुर-गति-मँझार, भव धर धर मयो अनन्त बार 

अब काल-लब्धि-बल तैं दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल ।

मन शान्त भयो मिटि सकल द्वन्द्व, चाख्यो स्वातम-रस दुखनिकन्द 

तातैं अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुव चरण साथ ।

तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुम विरद एव ॥

आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय ।

मैं रहूँ आपमें आप लीन, सो करो होउँ ज्यों निजाधीन ॥ १३॥

मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजै मुनीश ।

मुझ कारज के कारन सु आप,शिव करहु, हरहु मम मोह-ताप ॥

शशि शान्तकरन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत ।

पीवत पियूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभव तैं भव नशाय ||१५||

त्रिभुवन तिहुँकाल मँझार कोय,नहि तुम बिन निज सुखदाय होय ।

मो उर यह निश्चय भयो आज, दुख-जलधि उतारन तुम जिहाज ||

                        दोहा

तुम गुण-गण-मणि गणपती, गणत न पावहि पार ।

‘दौल’ स्वल्प-मति किम कहै, नमूँ त्रियोग सँभार ॥