दर्शन-स्तुति

                          सखी

अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया । 

अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने ॥

                      हरिगीतिका

पाये अनन्ते दुःख अब तक, जगत को निज जानकर ।

सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहि पहिचान कर ॥

भव बंधकारक सुख प्रहारक, विषय में सुख मानकर ।

निज पर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधि सुधा नहि पानकर॥

                 सखी-हरिगीतिका

तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये ।

निज ज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहित में लागी ॥ 

रुचि लगी हित में आत्म के, सतसंग में अब मन लगा । 

मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रँगा ।।

प्रिय वचन की हो टेव, गुणि गण गान में ही चित पगै ।

शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादन तैं भगे ||

कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर ।

ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर ॥

धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ।

दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दस धारन करूँ ॥

तप तपूँ द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्रव परिहरूँ। 

अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपु को निर्जरूँ॥३॥

कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ ।

कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ ॥

कर दूर रागादिक निरन्तर, आत्म को निर्मल करूँ ।

बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ॥ 

आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूँ ।

आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखद भवसागर तरूँ ॥